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तीर्थङ्कर चरित्र
तो राजागण और लोग क्षुब्ध होते हैं, परन्तु इस शंख-वादन से तो मैं भी क्षुब्ध हो गया हूँ।"
वे इस प्रकार सोच रहे थे कि इतने में शस्त्रागार-रक्षक ने उपस्थित हो कर प्रणाम किया और निवेदन किया कि--
"आपके बन्धु अरिष्टनेमि कुमार ने आयुधशाला में आ कर शंख फूंक दिया।"
श्रीकृष्ण यह सुन कर स्तब्ध रह गए। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि अरिष्टनेमि इतना बलवान है ? इतने में स्वयं अरिष्टनेमि ही वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रेम से आलिंगन-बद्ध कर अपने पास बिठाया और पूछा--"भाई ! अभी शंखनाद तुमने किया था?" कमार ने स्वीकार किया. तो प्रसन्न हो कर बोले:--
"भाई ! यह प्रसन्नता की बात है कि मेरा छोटा-भाई भी इतना बलवान है कि जिसके आगे इन्द्र भी किसी गिनती में नहीं। मैं तुम्हारी शक्ति से अनभिज्ञ था । अब मैं स्वयं तुम्हारी शक्ति देखना चाहता हूँ । चलो अपन आयुधशाला में चलें। वहाँ मैं तुम्हारे बल का परीक्षण करूँगा।"
दोनों भ्राता आयुधशाला में आये, साथ में बलदेवजी और अन्य कई कुमार आदि भी थे । श्रीकृष्ण ने पूछा;--
"कहो बन्धु ! शस्त्र से युद्ध कर के परीक्षा दोगे, या मल्ल-युद्ध से ?"
"यह तो आपकी इच्छा पर निर्भर है । मैं तो आपसे युद्ध करने का सोच ही नहीं सकता । परन्तु आप चाहें, तो बाहु झुकाने से भी काम चल सकता है।" ___ "ठीक है । मैं अपनी भुजा लम्बी करता हूँ, तुम झुकाओ।"
कुमार अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण की भुजा को ग्रहण कर के निमेषमात्र में कमलनाल के समान झुका दी । इसके बाद श्रीकृष्ण ने कहा--"अब तुम अपनी बांह लम्बी करो, मैं झुकाता हूँ।" कुमार ने अपनी बाँह लम्बी कर दी। श्रीकृष्ण अपना समस्त बल लगा कर झूल ही गए, परन्तु तनिक भी नहीं झुका सके । इस पर श्रीकृष्ण ने प्रसन्न हो कर अरिष्टनेमि को अपनी छाती से लगा कर, भुज-पाश में बाँध लिया और कहने लगे;--
__"जिस प्रकार ज्येष्ठबन्धु, मेरे बल से विश्वस्त हो कर संसार को तृण के समान समझते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे अलौकिक बल से मैं भी पूर्ण आश्वस्त एवं संतुष्ट हूँ। हमारे यादव-कुल का अहोभाग्य है कि तुम्हारे जैसी लोकोत्तम विभूति प्राप्त हुई।"
अरिष्टनेमि के चले जाने के बाद श्रीकृष्ण ने बलदेवजी से कहा"यों अरिष्टनेमि प्रशांत और प्रशस्त आत्मा लगता है, परन्तु यदि यह चाहे, तो
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