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________________ तीर्थङ्कर चरित्र कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककन कोठरी में आये और रुष्ट होने का कारण पूछा । सत्यभामा बोली--" में भी प्रद्युम्न के समान पुत्र चाहती हूँ। यदि वैसा पुत्र नहीं हुआ, तो मेरे हृदय में शान्ति नहीं हो सकती। मुझे जीवनभर जलना और घुल-घुल कर मरना पड़ेगा।" श्रीकृष्ण ने उपाय करने का आश्वासन दे कर मनाया। फिर उन्होंने नैगमेषी देव का आराधन किया । देव आया। श्रीकृष्ण ने सत्यभामा का मनोरथ पूरा करने का कहा । देव ने श्रीकृष्ण को एक माला दे कर कहा-"यह हार पहिन कर जो रानी आपके संसर्ग में रहेगी, उसके, प्रद्युम्न जैसा पुत्र होगा।" सत्यभामा के रुष्ट होने और कृष्ण के साधनारत होने की बात, चालाक प्रद्युम्न से छुपी नहीं रह सकी। वह अपनी तीक्ष्ण-दृष्टि चारों ओर रखता था । प्रज्ञप्ति विद्या के सहारे से उसने सभी बातें जान ली और अपनी माता को बतला दी। महारानी रुक्मिणी ने कहा- "अच्छा, मैं जाम्बवती को भेजना चाहती हूँ। परन्तु वह पहिचान में आ जाय, तो बात नहीं बन सकेगी।" प्रद्युम्न ने कहा--" में उनका रूप, बड़ी माता जैसा बना दूंगा और बड़ी माता को सन्देश मिलने में विलम्ब कर दूंगा। आप छोटी माता को समझा दें।" यही हुआ। निर्धारित समय पर सत्यभामा के रूप में जाम्बवती पहुंची। श्रीकृष्ण ने देव-प्रदत्त हार उसके गले में पहिना दिया । जाम्बवती के लौटने के बाद सत्यभामा आई, तो कृष्ण चकित रह गए। उन्होंने सोचा--" यह दूसरी बार फिर क्यों आई ?' किन्तु ऊपर से उन्होंने सन्देह व्यक्त नहीं होने दिया। बातों-बातों में ही समझ लिया कि कुछ गड़बड़ हुई है । चालाक प्रद्युम्न ने उपयुक्त समय का अनुमान लगा कर उसी समय आतंक फैलाने वाली श्रीकृष्ण की रणभेरी बजा दी, जिससे कृष्ण और सत्यभामा चौंक उठ । उन्होंने सेवक से भेरी-वादन का कारण पूछा । सेवक ने प्रद्युम्नकुमार का नाम बताया। श्रीकृष्ण समझ गए कि प्रद्युम्न ने ऐसा क्यों किया । सौत का बेटा भी सौत के समान दुःखदायी होता है । सत्यभामा का मनोरथ सफल नहीं होने देने के लिए ही उसने ऐसा प्रपञ्च किया है। कृष्ण समझ गए कि सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न होने वाला पुत्र भीरु होगा। दूसरे दिन कृष्ण रुक्मिणी के भवन गए। वहां जाम्बवती थी। जाम्बवती के कण्ठ में वह हार देख कर कृष्ण ने पूछा--" देवी ! यह दिव्य हार तुम्हारे पास कहाँ से आया ?" जाम्बवती ने कहा--"आप ही ने तो कल दिया था। हाँ, आज रात्रि में मुझे एक स्वप्न आया, जिसमें एक सिंह उछलता-कूदता हुआ मेरे मुख में प्रवेश करता हुआ दिखाई दिया।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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