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तीर्थकर चरित्र
रावण की आज्ञा मान कर मरुत राजा ने वह यज्ञ बन्द कर के सभी पशुओं को मुक्त कर दिया।
पशुबलि का उद्गम
रावण ने नारदजी से पूछा;--"महात्मन् ! ऐसे पशुवधात्मक यज्ञों की प्रवृत्ति कब से प्रारम्भ हुई ?"
"गजन् ! चेदी देश में शुक्तिमति नामक एक विख्यात नगरी है। उसके बाहर शुक्तिमति नदी बहती है । उस नगरी में अनेक सदाचारी नरेश होगए हैं । भगवान् मुनि सुव्रत स्वामी के तीर्थ में अभिचन्द्र नाम का श्रेष्ठ शासक हुआ। उनके पुत्र का नाम 'वसु था । वह महाबुद्धिमान था और जनता में 'सत्यवादी' माना जाता था। वहां 'क्षीरकदम्ब' नामक उपाध्याय के विद्यालय में उपाध्याय पुत्र पर्वत, राजकुमार वसु और मैं भी विद्याध्ययन करता था । कालान्तर में रात्रि के समय हम तीनों आवास की छत पर सो रहे थे। उस समय दो चारण-मुनि आकाश-मार्ग से, इस प्रकार कहते हुए जा रहे थे;--
"ये जो तीन विद्यार्थी हैं, इनमें से एक स्वर्गगामी होगा और दो नरकगामी होंगे।"
मुनिवर की यह बात क्षीरकदम्ब उपाध्याय ने सुनी। वे चिन्ता-मग्न हो कर सोचने लगे--'मेरे पढ़ाये हुए विद्यार्थी नरक में जावेंगे ?' उन्होंने परीक्षा करनी चाही और हम तीनों को आटे का बना हुआ एक-एक मुर्गा दे कर कहा--"जहाँ कोई नहीं देखता हो, ऐसे एकान्त स्थान में जा कर इस मुर्गे को मार कर मेरे पास लाओ।" वसु और पर्वत तो उसी समय किसी जन-शन्य स्थान में जा कर पिष्टमय कर्कट को मार कर ले आये। कित मैं नगर से बहुत दूर वन में जाकर विचार करने लगा--"गुरु ने इस कुर्कुट को ऐसे स्थान पर मारने की आज्ञा दी है कि जहाँ कोई देखता नहीं हो। यह जन-शून्य प्रदेश होते हुए भी यह कुर्कुट स्वयं देख रहा है । मैं भी देख रहा हूँ, नभचर पक्षी देख रहे हैं, लोकपाल देख रहे हैं और सर्वज्ञ भी देख रहे हैं । संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं कि जहाँ कोई भी नहीं देखता हो । गुरु की आज्ञा है कि 'जहाँ कोई नहीं देखता हो वहां मारना ।' इसका फलितार्थ तो यही हुआ कि इसे मारना ही नहीं और वैसे ही ले जाना । गुरुजी स्वयं अहिंसक एवं दयालु हैं । न तो किसी को मारते हैं और न मारने की शिक्षा ही देते हैं । वे हिंसा के विरोधी हैं । कदाचित् हमारी बुद्धि की परीक्षा करने के लिए उन्होंने यह
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