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तीर्थकर चरित्र
_ “महाराज ! इस दुष्ट लम्पट से मेरी रक्षा कीजिए । मैं बापकी शरण में हूँ। यदि मेरे गन्धर्व पति यहां उपस्थित होते, तो इस दुष्ट का जीवन ही समाप्त हो जाता । मेरे पति अदृश्य रहते हुए मेरी रक्षा करते हैं । कदाचित् अभी वे कहीं चले गय हों। इसीलिए में आपकी शरण में बाई हूँ।"
विराट नरेश न्यायी थे, किन्तु कीचक के प्रभाव से दबे होने के कारण वे मौन रहे । कीचक की दुष्टता भीमसेन ने सुनी, तो वह आवेशित होकर राजसभा में पहुँचा और कीचक पर झपटने ही वाला था कि पुरोहित बन कर बैठे हुए युधिष्ठिर के संकेत से संभल गया और अपने को रोक लिया । राजपुरोहित बने हुए और “कंक" नाम से विख्यात युधिष्ठिरजी ने द्रोपदी से कहा;
-“भट्टे ! यदि तेरा कहना सत्य है और तेरे पति प्रच्छन्न रह कर तेरी रक्षा करते हैं, तो तू उन्हें कह कर दुष्ट को उसकी दुष्टता का दण्ड दिलवा सकती है । तुझे घबड़ाना नहीं चाहिए ।
द्रौपदी समझ गई और सभा से चली गई। रात को सैरंध्री छुप कर भोजनशाला में गई । भीमसेन निद्र मग्न था । द्रौपदी ने उसे जगाया और उपालंभ देती हुई बोली
“आप में कुछ सत्वांश शेष रहा या सभी नष्ट हो चुका ? आपके देखते हुए एक लम्पट पुरुष बापकी अर्धापना को प्राप्त करने के लिए आक्रमण करे और बाप कायर के समान चुपचाप देखते रहें, यह कितनी लज्जा की बात है? मुझं स्वप्न में भी यह आशंका नहीं थी कि बाप के पांच बीर पति को पत्नी हो कर भी में बरक्षित रहूँगी । कहाँ लुप्त हो गई शी बाप की वह वीरता? कहाँ भाष पाया था वह शौर्य ? खड़े-खड़े एक मूर्ति की भांति क्यों देखते रहे -मेरा अपमान?"
देवी ! तुम्हारा उपालम्भ और भत्सना यकार है ।हन पाँच योद्धाओं के होते हुए और हमारे देखते हुए तथा तुम्हारा महान् अपमान होते हुए भी हम निष्प्राण शव की भांति कुछ भी नहीं कर सके, एक बार नहीं, दा-दो बार, भरी सभा में। एक हस्तिनापुर में दुःशासन द्वारा कौर दूसरा यहाँ । में कीवक का कमर कनारे को तत्पर हुआ ही था कि ज्वेष्ट-बम धर्मराजजी ने अाँख से संकेत कर के मुझे हर दिया । उनक कथन का आ सब कीचक को गुप्त राति से दण्ड देने का है । तुम्हें को परामर्श उन्होंने सभा में दिया, उसका यही माश्य है। अब तुम कीचक को बारूपित कसे हौर उसे मध्य-रात्रि में नाट्य शाला में आने का कहो। इसके बाद तुम्हारा केक मुझ दे देना कौर निश्चिन्त हो जाना । मं तुम्हारा वेश धारण कर के कीचक का कीचड़ बना दूंगा । तुम कल ही उसे
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