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विराट नगर में अज्ञात वास x x x कीचक वध
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के रूप और वेशभूषा भी विभिन्न प्रकार की होगी ।'
युधिष्ठिरजी की योजना सभी ने स्वीकार की। वे मत्स्य- देश के विराट नगर में पहुँचे। उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्र नगर के बाहर एक गुप्त स्थान में छिपा दिये। सर्वप्रथम युधिष्ठिरजी, ब्राह्मण के वेश में राजा विराट के समक्ष पहुँचे । लम्बी शिखा, भव्य ललाट, उन्नत मस्तक, प्रशान्त एवं तेजस्वी मुख मण्डन और आकर्षक व्यक्तित्व । राजा को गुरुगंभीर वाणी में आशर्वाद दे कर कहा
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" राजेन्द्र ! में हस्तिनापुर का राजपुरोहित हूँ। मेरा नाम " कंक" है। महाराजा युधिष्ठिरजी के वन-गमन के समय में भी राज-सेवा छोड़ कर निकल गया । में श्रीमान् की न्यायपूर्ण और सत्याश्रित राजनीति की प्रशंसा सुन कर सेवा में उपस्थित हुआ हूँ । चाहता हूँ कि यह जीवन श्रीमन्त की सेवा में लगा दूं । में हस्तिनापुर में महाराजा का परामर्शक था। यदि श्रीमान् का अनुग्रह हो जाय तो धन्य हो जाऊं।"
विष्ठिजी के व्यक्तित्व दर्शन से ही राजा प्रभावित हो गया। उसने उसी समय उन्हें अपनी सभा का सभासद और अपना विशेष परामर्शक ( सलाहकार) नियुक्त कर दिया। थोड़ी देर बाद भीमसेन आया । उसके हाथ में एक बड़ा-सा कलछा (कड़नाचमच ) था । उसने आते ही नरेश को अभिवादन किया और बोला- " महाराज ! मैं रसोइया हूँ | महाराजाधिराज युधिष्ठिरजी के शासनकाल में में हस्तिनापुर राज्य के विशाल भोजनालय के सैकड़ों रसोइयों का अधिकारी था। महाराज बड़े गुणज्ञ एवं कलामर्मज्ञ थे । उनके राज्य त्याग को में भी सहन नहीं कर सका और किसी वैसे ही स्वामी की सेवा प्राप्त करने के लिए भटकता रहा अब तक मुझे वैसा कोई पारखी नहीं मिला । श्रीमन्त की यशोगाथा सुन कर में श्रीचरणों में उपस्थित हुआ हूँ । श्रीमन्त के दर्शन से ही मुझे विश्वास हो गया कि यहां मेरी कला का आदर होगा ।'
राजा को भीम का प्रचण्ड शरीर और पुष्ट एवं सुदृढ़ बाहु देख कर आश्चर्य हुआ। वह बोला
" तुम तो अतुल बलवान् और महान् योद्धा दिखाई दे रहे हो। हो सकता है कि तुम पाक-कला में भी प्रवीण हो। तुम्हारे जैसे वीर तो राज्य के बड़े सहायक एवं रक्षक हो सकते हैं। मैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें भोजनशाला का उच्चाधिकारी नियुक्त
करता हूँ
एक दिन के अन्तर से अर्जुन भी एक स्त्रीवेशी पुरुष के रूप में आया और नपुंसक जैसी चेष्टा करता हुआ महाराज को प्रणाम कर के बोला
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