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द्रौपदी की सिंह और सर्प से रक्षा
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द्रौपदी को अपनी पीठ पर बिठाया और भीम के साथ चलने लगी। कुन्तीदेवी को प्यास लगी। उनका जी घबड़ाने लगा, तब हिडिम्बा उन्हें एक वृक्ष की छाया में बिठा कर, पानी लाने के लिए आकाश-मार्ग से चली गई । युधिष्ठिरादि भी पानी की खोज में विभिन्न दिशाओं में गये, किन्तु वे सब इधर-उधर भटक कर लौट आये। उन्हें पानी नहीं मिला । माता की घबड़ाहट बढ़ी और मूच्छित हो गई। यह दशा देख कर सभी शोकाकुल हो गए । पानी के बिना माता का जीवित रहना अशक्य हो गया । इतने ही में हिडिम्बा उड़ती हुई आई । उसके हाथ में पानी भरा पत्र-पात्र था। माता के मुंह में पानी डाल कर गले उतारा। धीरे-धीरे पानी उनके हृदय में पहुँचा । ठण्डक हुई और मूर्छा टूटी । सब के मन प्रफुल्लित हुए और वे हिडिम्बा का उपकार मानते हुए प्रशंसा करने लगे। कुछ समय विश्राम ले कर प्रवासी दल आगे बढ़ा। रात्रि का अन्धकार बढ़ने लगा। देव-योग से द्रौपदी अकेली पीछे रह गई और मार्ग भूल कर भटक गई । पाण्डव-दल ने द्रौपदी की कुछ समय प्रतीक्षा की। फिर चिन्तित हो कर खोज करने लगे।
द्रौपदी की सिंह और सर्प से रक्षा द्रौपदी भटकती हुई भयानक अटवी में चली गई । उसने देखा--एक सिंह उसके सामने चला आ रहा है । हटात् वह भयभीत हो गई, किन्तु शीघ्र ही सावधान हो कर, अपने आसपास भूमि पर वर्तुलाकार रेखा बनाई और सिंह को सम्बोध कर बोली
"वनराज ! मेरे स्वामी ने अपने जीवन में सत्य की सीमा का उल्लंघन कभी नहीं किया। उनके सत्य के प्रभाव से तुम भी इस सीमा-रेखा का उल्लंघन कर के मेरे पास नहीं आ सकोगे।"
द्रौपदी की खिंची हुई कमजोर रेखा, सिंह के लिए अनुलंध्य बन गई । वह निमेष मात्र एकटक द्रौपदी को देख कर अन्यत्र चला गया। द्रोपदी आगे बढ़ी, तो एक भयानक विषधर, पृथ्वी से हाथभर ऊँचा फण उठाये दिखाई दिया । द्रौपदी को लगा कि वह उसी को क्रूर दृष्टि से देख रहा है। थोड़ी देर में वह फणिधर द्रौपदी की ओर सरकने लगा। द्रौपदी सावचेत हुई और अपने आसपास भूमि पर रेखा खिचती हुई बोली
"मैने अपने पांचों पति के प्रति, मन, वचन और काया से कभी भेदभाव नहीं रखा हो और सरलभाव से व्यवहार किया हो, तो हे फणिधर ! तुम इस रेखा के भीतर प्रवेश नहीं कर सकोगे।
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