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४७० testostosastostestestacadas
तीर्थङ्कर चरित्र
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-"वत्स ! तेरी यह चाह उचित नहीं है । पाण्डव तेरे भाई हैं और न्यायी हैं । तेरे साथ वे वैर नहीं रखते । राज्य प्राप्ति के साथ ही युधिष्ठिर ने तुझे इन्द्रप्रस्थ का बड़ा राज्य दिया और तेरे भाइयों को भी पृथक्-पृथक् राज्य दे कर सन्तुष्ट किया । यह उनका स्नेह और सदारता है । तुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए"--शकुनि ने सच्ची बात कही।
-"मामा ! आपकी बात मेरा समाधान नहीं है। मेरी चिन्ता तभी दूर हो सकती है जब कि पाण्डवों का पतन हो । वे राज्यविहीन, मेरे दास बन कर रहें, या भटकते. भिखारी हो जाये और मैं उनके समस्त राज्य का स्वामी बनूं । इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है।"
शकुनि विचारों में डूब गया । उसे विचार-मग्न देख कर दुर्योधन बोला" मामाजी ! छोड़ो इस बात को । वास्तव में पाण्डव बड़े पराक्रमी हैं । उनका भाग्यसूर्य मध्यान्ह में प्रखर तेज से तप रहा है । मैं हतभागी हूँ। मेरे भाग्य में क्लेश एवं संताप ही बदा है ! आप इस चिन्ता को छोड़ दीजिए"--दुर्योधन ने हताश हो कर कहा ।
नहीं, राजन् ! उपाय तो है, परन्तु पापयुक्त है । धोखा दे कर उन्हें अपने जाल में फंसाना होगा, तभी तुम्हारा मनोरथ सफल हो सकेगा।"
"हे, है कोई उपाय ? क्या है वह ? मामा शीघ्र कहो, नोलो, बोलो, वह कौनसा उपाय है, जिससे मेरा मनोरथ सफल हो सके"--उत्साहित हो कर दुर्योधन पूछने लगा।
-"तुम उन्हें अपनी राजधानी में प्रेमपूर्वक आमन्त्रित करो । उनका अपूर्व सत्कार-सम्मान करने के बाद उसके साथ चौसर खेलने का आयोजन करो। युधिष्ठिर को दांव लगा कर पाशा खेलने का व्यसन है । वह खेलेगा । मेरे पास दैविक पासे हैं और उनसे मनचाहा हो सकता है। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है।"
दुर्योधन सन्तुष्ट हुआ। अब उन्हें धृतराष्ट्र की अनुमति लेनी थी। वो दोनों धृतराष्ट्र के पास आये ओर अपनी योजना बताई । धृतराष्ट्र ने विरोध किया और पराक्रमो पाण्डवों से वैर नहीं रख कर स्नेह-सम्प से रहने तथा प्राप्त राज्य-वैभव में ही सन्तुष्ट रहने का उपदेश दिया। किन्तु दुर्योधन कब मानने वाला था ? उसने अन्त में बही कहा--"पिताजी ! आप यदि मुझे जीवित देखना चाहते हैं, तो आज्ञा दीजिए । में जीवित रहते पाण्डवों का अभ्युदय नहीं देख सकता । बस, आपको दो में से एक चुनना होगा।"
शकुनि ने समर्थन करते हुए कहा-" मैने भी इसे खूब समझाया, किन्तु अन्त में
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