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षड्यन्त्र
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तीसरी बार की हँसी के तीव्र प्रवाह और महिला कक्ष से आये हुस इए वाक्बाण कि-'अन्धे की सन्तान अन्धी ही होती है' ने उसके धैर्य का किनारा ला दिया। महाराजा युधिष्ठिरजी के संकेत से हँसी का दौर रुका और अर्जुन ने उठ कर दुर्योधन को आदर सहित ला कर योग्य आसन पर बिठाया । किन्तु उसका हृदय अपनी हास्यास्पद स्थिति और ईर्षा से अत्यधिक जलने लगा । नींद उससे सर्वथा रूठ गई थी । वह शीघ्र ही वहाँ से हट कर अपनी राजधानी जाना चाहता था। दूसरे दिन महाराजाधिराज से प्रस्थान की आज्ञा माँगी । महाराजा ने रुकने का प्रेमपूर्ण आग्रह किया, किंतु उसने आवश्यक कार्य होने का मिस बना कर विवशता बताई और आज्ञा प्राप्त कर चल दिया ।
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षड्यन्त्र
दुर्योधन अपने कक्ष में उदास एवं चिन्तामग्न बैठा था कि उसके मामा शकुनि ने प्रवेश किया । भानेज को चिन्ता-मग्न देख कर शकुनि बोला-
" वत्स ! में तुझे कई दिनों से चिन्तित देख रहा हूँ । हस्तिनापुर से आने के बाद तेरी चिन्ता में वृद्धि ही हुई है। ऐसी कौनसी वेदना है तुझे ? कोन सता रहा है, तुझे ? किसके कारण दुःखी हो रहा है तू ? बोल, अपनी समस्या बता, तो सुलझाने का विचार करें ।"
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--" मामाजी ! मेरी चिन्ता जीवन के साथ ही बनी रहेगी । में दुर्भागी हूँ । मेरी वेदना दूर होने का संसार में कोई उपाय ही नहीं दिखाई देता " -- खिन्न वदन दुर्योधन बोला ।
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- " यदि तेरी चिन्ता लौकिक है, तो उसका उपाय भी कुछ न कुछ होगा ही । अलौकिक चाह का उपाय नहीं हो सकता । यदि तू भेद की बात कहे, तो विचार किया जाय " - शकुनि ने कहा ।
--" बात हृदय-कोष में ही दबाये रखने की है, परन्तु आपका आग्रह है और आप मेरे परम हितैषी पितातुल्य हैं । इसलिये आपके सामने भेद खोलता हूँ ।"
" मामाजी ! हस्तिनापुर पर पाण्डवों का अधिपत्य रहेगा और में उनका अधिनस्थ आज्ञाकारी रहूँगा, तब तक मेरी चिन्ता बनी ही रहेगी । पाण्डवों का पतन ही मेरी चिन्ता नष्ट होने का उपाय है, और कुछ नहीं" -- दुर्योधन ने मामा के सामने हृदय खोला ।
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