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तीर्थङ्कर चरित्र
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उस समय पाण्डु नरेश ने द्रोणाचार्य से कहा
"आचार्यवर्य ! यह सभा परीक्षा लेने के लिए जुड़ी है और अब यह कार्यक्रम पूरा हो चुका है । युद्ध करने का कोई कार्यक्रम नहीं है । अतएव आप अब इस कार्यक्रम को समाप्त कीजिए । समय भी बहुत हो चुका हैं ।"
आचार्य ने खड़े हो कर छात्रों से कहा--" अब कोई कार्यक्रम शेष नहीं रहा । युद्ध करने की आवश्कयता नहीं है । मैं आज्ञा देता हूँ कि अब स्वस्थान चलने के लिए तत्पर हों ।
आचार्य की आज्ञा सुनते ही कौरव और पांडव शान्त हो गए और अपने अस्त्रशस्त्र संभाल कर चलने लगे। सभा भी विसर्जित हो गई ।
राधावेध और द्रौपदी से लग्न
कम्पिलपुर के द्रुपद नरेश ने अपनी पुत्री द्रौपदी के पति-वरण के लिए नगर के बाहर एक विशाल एवं भव्य मंडप बनवाया । वह मण्डप सुसज्जित था । उसमें आगत नरेशों और राजकुमारों के लिए आसनों की समुचित व्यवस्था की थी । मंडप के मध्य में स्वर्णमय एक विशाल स्तंभ बनाया गया था। उसके बाँई और दाहिनी ओर चार-चार चक्र चल रहे थे । उस स्तंभ के ऊपर रत्नमय पुतली अधोमुख किये खड़ी की गई थी। स्तंभ के पास भूमि पर एक ओर एक धनुष रखा हुआ था और मध्य में एक बड़े कड़ाव में तेल भरा हुआ था । मण्डप के आसपास दर्शकों की विशाल भीड़ थी । यथासमय द्रुपद नरेश और युवराज धृष्टद्युम्न आये और आगत नरेशों और राजकुमारों का स्वागत कर यथास्थान बिठाने लगे। सभी के आ कर बैठ जाने के बाद राजकुमारी द्रौपदी अपनी सखियों और अन्तःपुर-रक्षकों के साथ गजगति से चलती हुई सभा में उपस्थित हुई । द्रौपदी का सौंदर्य अत्युत्तम था । शरीर का प्रत्येक अंग आकर्षक था । उसका शरीर एक प्रकार की आभा से देदीप्यमान हो रहा था। जिसने भी द्रोपदी को देखा, मोहित हो गया और प्राप्त करने के लिये लालायित हुआ । द्रौपदी के आते ही धृष्टद्युम्न ने उठ कर सभा को सम्बोधित करते हुए कहा ;
" आदरणीय सभाजनों ! आपमें से जो कलाविद् वीर पुरुष, इस धनुष से स्तंभ पर रही हुई पुतली की परछाई, इस तेल में देख कर अपने बाण से पुतली की बाँई आंख
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