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युधिष्ठिरादि पाण्डवों की उत्पत्ति
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इनमें से कल्पवृक्ष का एक सुन्दर पेड़ उड़ कर कुन्ती की गोदी में समा गया । वह स्वप्न देख कर जाग्रत हुई । गर्भ के प्रभाव से कुन्ती के मन में अपूर्व साहस उत्पन्न होने लगा । वह सोचती कि--' में इन पर्वतों को उखाड़ कर फेंक दूं।' उसके तन में भी अपूर्व बल का संचार हुआ । वह वज्ररत्न को भी चुटकी में मसल कर चूर्ण कर देती । गर्भकाल पूर्ण होने पर कुन्ती ने एक तेजस्वी वज्रदेही पुत्र को जन्म दिया । आकृति में भयोत्पादकता होने के कारण इसका नाम 'भीम' रखा । गर्भ में आने पर माता को स्वप्न में, पवन के उग्र वेग से कल्पवृक्ष उखड़ कर माता की गोदी में आया, इसलिए भीम का दूसरा नाम 'पवनतनय' भी रहा । भीम की जठराग्नि बहुत तेज थी । उसके पेट में गया हुआ आहार शीघ्र ही पच जाता था और वह भूखा ही रहता था। आहार बढ़ने के साथ उसका शरीर भी सुदृढ़ एवं कठोर होने लगा । यदि बालक भीम को भोजन कम मिलता, तो वह दूसरे से छिन कर खा जाता । उसकी वय एवं बल के साथ पराक्रम भी बढ़ने लगे । जब भीम छह मास का था, तब राजा-रानी वन विहार के लिए निकट के पर्वत पर गए । वे पर्वत शिखर पर एक वृक्ष के नीचे बैठे थे । हठात् बालक भीम, अपनी हलचल से रानी की गोद से फिसला और भूमि पर लड़कता हुआ, ढलान से पर्वत के नीचे तलहटी तक पहुँच गया । राजा-रानी का हृदय धक से रह गया । अंगरक्षक दौड़े। उन्होंने देखा -- जिधर भीम लुढ़कता गया । उधर के पत्थर टूट कर बिखरे हुए पड़े हैं और नीचे जहाँ बालक ने जोर से पछाड़ खाई, वहाँ की शिला चूर्णविचूर्ण हो गई । एक सेनिक बालक के सुरक्षित एवं अक्षत होने की सूचना देने दौड़ा । पुत्र के गिरि-पतन से धसका खा कर कुन्ती मूच्छित हो गई थी । पाण्डु राजा उसे चेतना लाने का प्रयत्न कर रहे थे । रानी सावधान हो कर "हा, पुत्र ! हा वत्स ! " पुकार-पुकार कर रोने लगी। इतने में सैनिक ने जा कर बच्चे के सुरक्षित होने का समाचार सुनाया । राजा रानी उठे और बड़ी उत्सुकता के साथ तलहटी पर पहुँचे । उन्होंने देखा -- बालक उनकी और देख कर हँस रहा है । उन्होंने उसके अंग-प्रत्यंग को ध्यानपूर्वक देखा, दबाया, परन्तु कहीं कुछ क्षति दिखाई नहीं दी । जब मुख्य सैनिक ने, टूट कर विचूर्ण हुई शिला की ओर राजा-रानी का ध्यान आकर्षित किया, तो वे चकित रह गए । उन्हें विश्वास हो गया कि बालक भीम कोई विशिष्ठ आत्मा है । यह बालक महाबली और संसार में हमारे कुल की पताका लहराने वाला होगा ।
कुछ काल व्यतीत होने पर कुन्ती पुनः गर्भवती हुई। उसने स्वप्न में ऐरावत पर आरुढ़ इन्द्र को अपने में समाते देखा । राजा ने कहा-- प्रिये ! तुम्हारे गर्भ में इन्द्र के समान प्रतापी आत्मा आई है ।" कुन्ती के मन में दोहद उठने लगे । उसके मन में धनुष
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