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________________ ४१२ तीर्थंकर चरित्र द्वारा प्राप्त सुख का विचार त्याग कर, दान-पुण्य में मन लगा और अपनी भोजनशाला में बने हुए विपुल आहारादि का, भोजनार्थियों को दान कर के पुण्य कर्म का संचय कर ।" सुकुमालिका ने पिता की बात मानी और भोजनार्थियों को दान देती हुई जीवन बिताने लगी । त्यागी श्रमण, भोग-साधन नहीं जुटाते उस समय 'गोपालिका' नामक बहुश्रुत आर्या, अपनी शिष्याओं के साथ ग्रामानुग्राम विचरती हुई चम्पानगरी पधारों और भिक्षा के लिए भ्रमण करती हुई सागरदत्त के घर में प्रवेश किया । सुकुमालिका ने आहार दान के पश्चात् आर्यिकाजी से पूछा ; - " हे श्रेष्ठ आर्या ! आप बहुश्रुत हैं । ग्रामानुग्राम विचरने से आप में अनुभवज्ञान भी विशाल होगा । आप मुझ दुखिया पर अनुग्रह करें। मेरे पति सागर ने लग्न की रात्रि को ही मेरा त्याग कर दिया। वह मेरा नाम लेना भी नहीं चाहता । मैंने भिखारी से स्नेह जोड़ा, तो वह भी मुझे छोड़ कर चला गया। में दुखियारी हूँ । आप मुझ पर दया कर के कोई मन्त्र, तन्त्र, जड़ी-बूटी या विद्या का प्रयोग बता कर कृतार्थ करें। आपका मुझ पर महान् उपकार होगा। मुझे आप दुःखसागर से उबारिये ।" महासतीजी ने अपने दोनों कानों में अंगुली डाल कर कहा - " शुभे ! हम संसार - त्यागिनी साध्वियाँ हैं, निग्रंथधर्म का पालन करती हैं। तुम्हारे मोहजनित शब्द सुनना भी हमारे लिए निषिद्ध है, तब योग-प्रयोग बताने को तो बात ही कहाँ रही ? यदि तुम चाहो, तो हम तुम्हें निग्रंथधमं सुना सकती हैं ।" महासतीजी ने धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश सुन कर सुकुमालिका श्राविका बनी। वह श्रावक व्रत का पालन करती हुई साधु-साध्वियों को आहारादि से प्रतिलाभित करने लगी । सुकुमालिका साध्वी बनती है कुछ दिन बाद रात्रि के समय वह शय्या में पड़ी हुई अपने दुर्भाग्य पर चिन्ता करने लगी । अंत में उसने इस स्थिति से उबरने के लिए प्रव्रजित हो कर साध्वी बनने का निश्चय किया । प्रातःकाल उसने माता-पिता के सामने अपने विचार प्रस्तुत किये और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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