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________________ ४०६ तीर्थङ्कर चरित्र तपस्वी महात्मा भी थे। सतत मासखमण की तपस्या करते थे। उस दिन उनके मासोपवास का पारणा था । वे भिक्षाचरी के लिए भ्रमण करते हुए सोमदेव ब्राह्मण के घर पहुँचे । उस समय सोमदेवादि सभी ने भोजन कर लिया था । नागश्री मुनि को देख कर प्रसन्न हई। उसने सोचा ‘अच्छा हआ जो यह साध आ गया। अब मझे उस कडए तुम्बे के शाक को फेंकने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ेगा। मैं इसीको यह सब शाक दे दूं।' इस प्रकार सोच कर उसने तपस्वी मुनि के पात्र में सारा शाक डाल दिया । पर्याप्त आहार जान कर महात्मा लौट कर गुरुदेव के समीप आये और आहार दिखाया । आचार्य ने वह शाक देखा और उसकी गन्ध से प्रभावित हो कर उसका एक बूंद अपनी हथेली पर ले कर चखा। उन्हें उसकी वास्तविकता मालूम हो गई। उन्होंने तपस्वी से कहा ___ "देवानुप्रिय ! इस शाक को तुम मत खाओ । यह प्राण-हारक है । इसे यहाँ से ले जा कर निर्दोष स्थान पर डाल दो और अपने लिए दूसरा आहार ला कर पारणा कर लो।" धर्मरुचि अनगार पात्र ले कर स्थण्डिल भूमि पर आये। भूमि की प्रतिलेखना की और अपनी आशंका दूर करने के लिए, शाक का एक बूंद भूमि पर डाला। थोड़ी ही देर में शाक की गन्ध से आकर्षित हो कर हजारों चिटियाँ वहाँ आ पहुंची और शाक खा-खा कर मरने लगी। यह देख कर तपस्वी धर्मरुचि के मन में विचार हुआ कि "एक बूंद से हजारों चिंटियां मर गई, तो सारा शाक खा कर कितने प्राणियों का मरण हो जायगा ? इसलिए इस शाक को मुझे ही खा लेना चाहिए । मेरे लिए यही हितकर और श्रेयस्कर है । यह शाक मेरे शरीर में ही समाप्त हो जाओ । यही स्थान इसके योग्य है।" ___ इस प्रकार विचार कर तपस्वी संत, वह सभी शाक खा गए । थोड़ी ही देर में वह शाक उन महात्मा के शरीर में परिणम कर वेदना उत्पन्न करने लगा। महात्मा अंतिम आराधना करने को तत्पर हुए और पात्र आदि एकान्त निर्दोष स्थान में रख कर विधिपूर्वक संथारा किया । आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधिभाव युक्त धर्म-ध्यान करते हुए देह त्यागी । वे 'सर्वार्थसिद्ध' महा विमान में अहमिन्द्र हुए। तपस्वी धर्मरुचिजी को गये बहुत काल व्यतीत होने पर, आचार्यश्री धर्मघोष अनगार को चिन्ता हुई। उन्होंने साधुओं को सम्बोधित कर कहा- “आर्यो ! तपस्वी को अनिष्ट आहार परठाने गये बहुत का बीत गया, वे नहीं लौटे । तुम जाओ खोज करो ! उन्हें इतना विलम्ब क्यों हुआ ?'' गुरु-आज्ञा शिरोधार्य कर श्रमण-निग्रंथ खोज करने गए । खोज करते उन्हें धर्मरुचि तपस्वी का सोया हुआ निश्चेष्ट देह दिखाई दिया। Jain Education International www.jainelibrary.org | For Private & Personal Use Only
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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