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________________ पाण्डवों की उत्पत्ति ४०३ सकेंगे?" उसके हृदय में दया उमड़ी । उसने वहाँ पड़ी हुई घास उठा कर, मुनि को ठीक प्रकार से ढक दिया। प्रातःकाल होने पर वह महात्मा के निकट आई और प्रणाम किया। मुनिराज ने उसे धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश सुनते-सुनते काणा के मन में विचार हुआ--'मैने इन महात्मा को कहीं देखा है।' किन्तु उसे स्मृति नहीं हुई । उसने महात्मा से कहा--"मैने आपको पहले देखा अवश्य है, परन्तु अभी याद नहीं आ रहा है ।' मुनिजी ने ज्ञानोपयोग मे उसके पूर्वभवों को जान कर लक्ष्मीवती के भव की घटना और बाद के भव कह सुनाये। महात्मा से अपने पूर्वभव का वर्णन सुनते और चिन्तन करते काणा को जातिस्मरण हो या । आने पूर्वभव में महात्मा की की हुई भर्त्सना की उसने क्षमा याचना की और परम धाविका बन गई । फिर महासतीजी का योग पा कर वह उन्हीं के साथ विचरने रुगी । चलते-चलते वह एक ग्राम में 'नायल' नाम के श्रावक के आश्रय में रह कर एकान्तर तप करने लगी। बारह वर्ष तक तपपूर्वक श्राविका-पर्याय पाली और अनशन करके ९ शान देवलं क में देवी हुई - । वहाँ का आयु पूर्ण करके वह रुक्मिणी हुई है।" ___ इस प्रकार भ. सीमन्धर स्वामी से रुक्मिणी का पूर्वभव सुन कर नारदजी ने भगवान् की वन्दना की और वहां से चल कर वैताढ़यगिरि के मेघकूट नगर आये। उन्होंने विद्याधरराज संवर से कहा- “तुम्हें पुत्र प्राप्ति हुई, यह अच्छा हुआ।" संवर राजा ने नारद का बहुत सम्मान किया और प्रद्युम्न को ला कर दिखाया। नारद ने देखा कि वह बालक, रुक्मिणी के अनुरूप है । वहां से चल कर वे द्वारिका आये और कृष्ण आदि को प्रद्युम्न तथा अपनी खोज सम्बन्धी पूरा वृत्तान्त सुनाया। रुक्मिणी को उन्होंने उसके पूर्व के लक्ष्मीवती आदि भवों का वर्णन सुनाया। अपने पूर्वभवों का वृत्तांत सुन कर रुक्मिणी ने वहाँ रहे हुए ही भगवान की वन्दना की। सोलह वर्ष के पश्चात् पुत्र का मिलन होगा-इस भविष्यवाणी से उसे इतना संतोष हुआ कि पुत्र जीवित है और सोलह वर्ष बाद उसे अवश्य मिलेगा। पाण्डवों की उत्पत्ति भगवान् आदिनाथ स्वामी के 'कुरु' नाम का पुत्र था । इस कुरु के नाम से ही .'त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' में 'अच्युतेन्द्र की इन्द्राणी' होना और माय 'पचपन पल्योतलाया है। यह सिद्धांत के विरुद्ध है। क्योंकि ईशानेन्द्र तक ही देवांगना होती है। अच्युत कल्प में नहीं होती तथा इन्द्रानी की आयु भी नौ पल्योपम से अधिक नहीं होती। पचपन पल्योपम की उत्कृष्ट आय ईशान कल्प की अपरिग्रहिता देवी की होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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