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________________ ४०२ तीर्थंकर चरित्र थी। एकदा उसने उपवन में मयूरी का अण्डा देखा और अपने कुंकुम-लिप्त हाथ में ले कर पुनः रख दिया । जब मयूरी आई और उसने अण्डे के वर्ण-गन्धादि परिवर्तित देखे, तो शंकित हो गई और अण्डे से दूर रही। अण्डा बिना सेये सोलह घड़ी तक रहा । फिर वर्षा होने से अण्डे पर लगा हुआ कुंकुम और उसकी गन्ध धुल कर पुनः वास्तविक दशा प्रकट हो गई। इसके बाद मयूरी ने अण्डा सेया और उसमें से बच्चा निकला । कालांतर में लक्ष्मीवती फिर उस उपवन में गई और मयूर के सुन्दर बच्चे पर मोहित हो कर पकड़ लाई । बिचारी मयूरी रोती कलपती रही, पर लक्ष्मीवती ने उसके दुःख की उपेक्षा कर दी। अब वह उस बच्चे को एक सुन्दर पींजरे में रख कर खिलाने-पिलाने और सुखपूर्वक रखने तथा नृत्य सिखाने लगी। उधर मयूरी को पुत्र-वियोग का दुःख बढ़ता रहा। वह सदैव अपने बच्चे को खोजने के लिए चिल्लाती हुई उस उपवन में भटकने लगी। ग्रामवासियों से मयूरी की दशा नहीं देखी गई, तो किसी ने लक्ष्मीवती से मयूरी के दुःख की बात कही । लक्ष्मीवती का हृदय पसीजा। उसने बच्चे को ले जा कर उसकी माँ के पास छोड़ दिया। बच्चे को माता का विरह सोलह मास रहा । प्रमाद के वशीभूत हो कर लक्ष्मीवती ने, पुत्र-विरह का सोलह वर्ष की स्थिति का, असातावेदनीय कर्म उपार्जन कर लिया। एकबार लक्ष्मीवती अपना विभूषित रूप, दर्पण में तल्लीनतापूर्वक देख रही थी। उस समय समाधिगुप्त नामक तपस्वी संत भिक्षा के लिए उसके घर में आए । सोमदेव कार्यवश बाहर जा रहा था। उसने पत्नी से कहा-'इन तपस्वी मुनि को भिक्षा दे दे ।' लक्ष्मीवती ने तपस्वी को देख कब घृणापूर्वक थूक दिया और गालियां देती हुई उन्हें घर से बाहर निकाल कर द्वार बन्द कर दिया । तपस्वी संत की तीव्र जुगुप्सा के पाप कर्म से उसे सातवें दिन कोढ़ का रोग हो गया, जिसे वह सहन नहीं कर सकी और अग्नि में जल कर मर गई । मनुष्य-देह छोड़ कर वह उसी गाँव में एक धोबी के यहाँ गधी के रूप में उत्पन्न हुई । गधी मर कर उसी गांव में डुक्करी (भंडुरी) हुई । फिर कुतिया हुई और दावानल में जली। उस समय मन में कुछ शुभ भाव उत्पन्न हुआ, जिससे मनुष्यायु का बन्ध किया और मर कर नर्मदा नदी के पास भृगुकच्छ नगर में मच्छीमार की 'काणा' नामकी पुत्री हुई। वह दुर्भागिनी थी। उसकी देह से दुर्गन्ध निकलती थी। असह्य दुर्गन्ध से त्रस्त हो कर उसके माता-पिता ने उसे नर्मदा के किनारे रख दिया । वय प्राप्त होने पर वह नदी पार जाने-आने वालों को नौका से पहुँचाने लगी । देवयोग से समाधिगुप्त मुनि, नदी के उसी तट पर आ कर ध्यानस्थ रहे । शीतकाल था और सर्दी का जोर था। काणा ने मुनि को देखा और विचार करने लगी-"ये महात्मा इस असह्य सर्दी को कैसे सहन कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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