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________________ ३६६ तीर्थंकर चरित्र आपको भी बधाई है।" सत्यभामा बधाई सुन कर उदास हो गई और तत्काल पलट कर अपने भवन में आई । थोड़ी देर बाद उसने भी पुत्र को जन्म दिया। कृष्ण, पुत्र-जन्म की बधाई से हर्षित हो कर रुक्मिणी के मन्दिर में आये और बाहर के कक्ष में बैठ कर, पुत्र को देखने के लिए मँगवाया । पुत्र की देह-कांति से दिशाएँ उद्योत युक्त हुई देख कर उन्होंने पुत्र का नाम प्रद्युम्न' रखा । वे कुछ देर तक पुत्र को निरख कर स्नेहपूर्वक छाती से लगाये रहे। प्रद्युम्न का धूमकेतु द्वारा सहरण प्रद्युम्न का पूर्वभव का वैरी धूमकेतु नामक देव, अपने शत्रु से बदला लेने के लिए, रुक्मिणी का रूप धर कर, कृष्ण के सामने आया और उनसे बालक को ले कर वैताड़य. गिरि पहुँचा । पहले तो उसने बालक को पछाड़ कर मार डालने का विचार किया, किन्तु बाद में बाल-हत्या के पाप से बचने के लिए, वह एक पत्थर की शिला पर रख कर चल दिया। उसने सोचा-"भूख-प्यास से यह अपने-आप ही मर जायगा।" धूमकेतु के लौट जाने के बाद बालक हिला, तो शिला से नीचे गिर पड़ा । नीचे सूखे हुए पत्तों का ढेर था, इसलिए उसे चोट नहीं लगी। चरम-शरीरी एवं निरुपक्रम आयु वाले जीव को कोई अकाल में नहीं मार सकता। कुछ समय बाद 'कालसंवर' नामक विद्याधर उधर से निकला । उस स्थान पर आते ही उसका विमान रुका । नीचे उतर कर उसने बालक को उठाया और राजभवन में ला कर पत्नी को दिया। फिर रानी के गूढ़-गर्भ से पुत्र-जन्म की बात राज्य में चला कर जन्मोत्सव करने लगा। कुछ समय बाद रुक्मिणी ने पुत्र को मँगवाया, तो कृष्ण ने कहा-“तुम खुद अभी मुझ-से ले गई हो । वह तुम्हारे पास ही है।" जब बालक नहीं मिला, तो कृष्ण समझ गए कि किसी के द्वारा मैं छला गया हूँ । पुत्र-हरण के आघात ने रुक्मिणी को मूच्छित कर दिया । सत्यभामा को छोड़ कर शेष सभी रानियों, यादव-परिवार के सदस्यों और सेवकों में शोक एवं विषाद व्याप्त हो गया। कृष्ण ने बालक का पता लगाने के लिए चारों ओर सेवकों को भेजा, परन्तु कहीं पता नहीं लगा । रुक्मिणी की मूर्छा दूर होने पर उसने पति से कहा--" आप जैसे समर्थ पुरुष के पुत्र का भी पता नहीं लगे, तो दूसरे सामान्य व्यक्ति की सुरक्षा कैसे हो?" कृष्ण और यादव-परिवार हताश हो कर चिंतामग्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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