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________________ रुक्मिणी-विवाह रुक्मिणी को ले कर जाइए। में इस सेना को नष्ट कर के आता हूँ ।" बलरामजी ने कहा'नहीं तुम जाओ। मैं इन सब को मार कर आऊँगा ।" यह सुन कर रुक्मिणी को अपने भाई के जीवन की चिन्ता हुई । उसने कहा 4: " हे नाथ ! मेरे भाई रुक्मि को तो छोड़ दें ।" कृष्ण की अनुमति से बलराम ने रुक्मि को नहीं मारने का वचन दिया। कृष्ण का रथ द्वारिका की ओर चला और बलराम नहीं डटे रहे । वे शत्रु सेना की प्रतिक्षा करते रहे । जब सेना निकट आ गई, तो मूसल उठा कर वे उसमें प्रवेश कर मर्दन करने लगे। उनके हल के प्रहार से हाथी भी धराशायी होने लगे । मूसल के प्रहार रथ नष्ट - विनष्ट होने लगे। अंत में शिशुपाल और बची हुई सारी सेना पलायन कर गई। किंतु वीरत्व के अभिमान से युक्त रुक्मि अडिग रहा और बलराम से बोला- 66 'गोपाल ! खड़ा रह में तेरे गोदुग्ध से बने हुए शरीर और अहंकार को अभी चूर्ण करता हूँ ।" रुक्मि के ऐसे अपमानकारक वचन भी बलराम को सहन करने पड़े, क्योंकि उन्होंने रुक्मिणी को वचन दिया था। उन्होंने रुक्मि के रथ, घोड़े और कवच को तोड़ दिया, फिर मूसल रख कर क्षुरप्र बाग उठाया । जब रुक्मि वध स्थिति में आया, तो क्षुरप्र बाण छोड़ कर मूंछ के बाल साफ कर दिये और हँसते हुए बोले; -- " मूर्ख ! तू मेरी भ्रातृ-पत्नी का भाई है । इसलिए मैं तुझे जीवित छोड़ रहा हूँ । जा और अपनी रानियों को विधवा होने से बचा ।" ३६१ रुक्मि लज्जित हुआ। वह कौन सा मुँह ले कर नगर में प्रवेश करे ? वह वहीं रहा और वहीं भोजकट नगर बना कर रहने लगा । कृष्ण रुक्मिणी को ले कर द्वारिका के निकट आये । प्रिया को अपनी राजधानी दिखाते हुए बोले --' प्रिये ! इस नगरी का निर्माण मनुष्य ने नहीं, देव ने किया है । तुम यहाँ सुखपूर्वक मेरे साथ रह कर जीवन सफल करोगी ।" "स्वामिन् ! आपकी दूसरी रानियें तो अपने साथ सेवक-सेविकाओं का परिवार और बहुत-सी सम्पत्ति (दहेज) ले कर आई होंगी। किंतु मैं तो अकेली और एक वन्दिनी की भाँति यहाँ आई हूँ। अब सोचती हूँ कि मुझे अपनी बहिनों के सामने हँसी की पात्र हो कर लज्जित होना पड़ेगा ।" "" 'नहीं, में तुम्हें सब से अधिक गौरवशालिनी बनाऊँगा ।” उन्होंने रुक्मिणी को सत्यभामा के निकट ही एक भव्य भवन दिया और गंधर्व विवाह कर के भोग भोगने लगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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