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पुत्र प्राप्ति और द्वारिका का निर्माण
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को जीवित ही निकालने के लिए, अग्नि में प्रवेश करने के लिए तत्पर हुआ। साथ में आये हुए अनुभव-वृद्ध राजाओं और हितैषियों ने उसे रोकना चाहा । उन्होंने कहा-- - "हमारे प्रयाण के समय हमें, अनेक अपशकुन हुए । प्रकृति की ओर से हमें अपने साहस के अनिष्ट परिणाम की सूचना मिल चुकी है । हमें बहुत सोच-समझ कर काम करना है । संभव है कि हमारे सामने कोई छल रचा गया हो । जब यादव-कुल अपने आप ही आग में जल कर मर गया, तो हमें और चाहिये ही क्या? हमारा कार्य पूरा हो चुका । वे बिना मारे ही मर गए । अब हमें लौट चलना चाहिये ।"
"नहीं, मैं उन्हें जीवित निकाल कर मारूँ गा । मैने प्रतिज्ञा की थी कि यदि वे आग में घुस जाएँगे, तो मैं उन्हें वहाँ से भी खिच लाऊँगा। तुम मुझे रोको मत । विलम्ब हो रहा है ।" ..
इतना कह कर कालकुमार अग्नि में कूद पड़ा और थोड़ी ही देर में मर गया । उसकी देह लकड़ी के समान जल गई । सन्ध्या हो चुकी थी। राजकुमार यवन, सहदेव और साथ रहे हुए राजा आदि ने वहीं रात व्यतीत को । प्रातःकाल होने पर उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा । वहाँ न तो कोई पहाड़ था, न चिता ही थी। कुछ भी नहीं था। इतने ही में गुप्तचरों ने आ कर कहा कि यादवों का संघ बहुत दूर आगे निकल गया है । अब कालकुमार के भाइयों, सेनापतियों और राजाओं को विश्वास हो गया कि यह पहाड़ अग्नि और चिता आदि सब इन्द्रजाल था। हम ठगे गए और कालकुमार व्यर्थ ही मारा गया । वे सभी रोते और शोक करते हुए वहाँ से लौट कर जरासंध के पास पहुँचे । पुत्र-वियोग के आघात से जरासंध मूच्छित हो गया। मूर्छा दूर होने पर वह “हा, पुत्र !'-पुकारता हुआ रोने लगा।
पुत्र प्राप्ति और द्वारिका का निर्माण
यादवों का प्रयाण चालू ही था। उनके गुप्तचरों ने आ कर कहा--" कालकुमार चिता में प्रवेश कर भस्म हो चुका है और सेना उलटे पाँव लौट गई है ।" यादवों के हर्ष का पार नहीं रहा । उन्होंने साथ आये हुए कोष्टुकी (भविष्यवेत्ता) का बहुत आदर-सम्मान किया और सन्ध्या समय एक वन में पड़ावं किया । वहाँ 'अतिमुक्त' नामक चारणमुनि आये । दशाहराज समुद्रविजयजी आदि ने महात्मा को वन्दन-नमस्कार किया और विनय
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