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. तीथंङ्कर चरित्र
जाने के लिए निकले । मार्ग में उन्हें नारदजी मिले। वसुदेव और कंस ने उनको प्रणाम कर के बहुत सम्मान किया। नारदजी ने प्रसन्न हो कर पूछा--"कहाँ जा रहे हो ?" वसुदेव ने कहा--" मेरे इन सुहृद मित्र के आग्रह से राजकुमारी देवकी से विवाह करने के लिए मृतिका नगरी जा रहा हूँ।" नारद ने कहा--
-"कंस ने यह ठीक ही किया है। योग्य पात्र का निर्माण हो जाता है, परन्तु योग्य से योग्य का सम्बन्ध तो मनुष्य ही जोड़ता है । जिस प्रकार पुरुषों में तुम योग्य और अप्रतिरूप हो, उसी प्रकार देवकी भी स्त्रियों में अप्रतिरूप--अनुपम है । तुमने बहुतमी विद्याधर कुमारियों से लग्न किये, परन्तु देवकी को देखोगे, तो तुम्हें तुम्हारी सभी पत्नियें तुच्छ लगेगी। तुम्हारा यह कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो, इसलिए मैं अभी जा कर देवकी को तुम्हारे गुणों का परिचय दे कर तुम्हारी ओर आकर्षित करता हूँ।"
इतना कह कर नारद उड़े और देवकी के आवास में पहुँचे । देवकी ने नारदजी को बहुमानपूर्वक नमस्कार किया और उचित द्रव्यों को अर्पण कर सत्कार किया । नारद ने देवकी को आशीष देते हुए कहा--"तुम सुखी रहो और वसुदेव जैसा योग्य वर प्राप्त करो।"
"वसुदेव कौन है"--देवकी ने पूछा।
--"वे दसवें दशाह है । अत्यन्त स्वरूपवान् गुणवान् और विद्याधर-कुमारियों के अत्यन्त प्रिय हैं । विशेष क्या कहूँ, वे देवोपम सुन्दर हैं। उनके तुल्य कोई मनुष्य मेरे देखने में नहीं आया।"
नारदजी इतना कह कर चले गए । नारद के वचनों से वसुदेव ने देवकी के हृदय में स्थान पा लिया। वसुदेव और कंस, मृतिका नगरी पहुँचे । देवक राजा ने उनका हार्दिक स्वागत किया और योग्य आसन दे कर आगमन का कारण पूछा। कंस ने कहा
"काकाजी ! मैं देवकी बहिन के योग्य वर लाया हूँ। आप अपनी पुत्री के लग्न इनके साथ कर दीजिए।"
"कन्या के लिए वर स्वयं चल कर आवे-ऐसी रीति नहीं है । ऐसे पुरुष को में कन्या नहीं दे सकता।"
देवक राजा की बात सुन कर दोनों निराश हुए और वहाँ से उठ कर अपने उतारे पर आये । उसके बाद देवक राजा अन्तःपुर में गए । देवकी ने पिता को प्रणाम किया। पिता ने आशीष देते हुए कहा--" योग्य वर प्राप्त कर के सुखी हो।" फिर रानी को सम्बोधन कर कहा--
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