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________________ भ्रातृ-मिलन और रोहिणी के साथ लग्न -"ठीक है, दोनों दण्ड के पात्र हैं। इन्हें अवश्य दण्डित करना चाहिए। जिससे दूसरों को भी शिक्षा मिले " एक समर्थक ने कहा । --" आप अन्याय कर रहे हैं। आपको बोलने का कोई अधिकार नहीं है । स्वयंवर के नियम के अनुसार कुमारी अपना वर चुनने में पूर्णरूप से स्वतन्त्र है । वह किसी को भी अपना जीवनसाथी चुने, इसमें किसी को भी टाँग अड़ाने की आवश्यकता नहीं रहती । आपको कुमारी का निर्णय मान्य करना चाहिए -- रोहिणी के पिता रुधिर ने नरेश-मंडल को मुंहतोड़ उत्तर दिया । "" 'आपका कथन यथार्थ तथापि इस पुरुष से इसका वंश, कुल और शील आदि का परिचय प्राप्त करना चाहिए" - न्यायवेत्ता विदुर ने कहा । 64 ३५७ " मेरे कुल-शील आदि का परिचय यथावसर अपने-आप मिल जायगा । मैं यही कहता हूँ कि स्वयंवर के नियम के अनुसार प्राप्त पत्नी को हरण करने अथवा मेरे अधिकार को चुनौती देने का किसी ने साहस किया है, तो में अपना भुजबल बता कर, अपनी योग्यता तथा कुलशीलादि का परिचय अवश्य दूंगा " - वसुदेव विरोधियों को सावधान किया । वसुदेव के चुनौती भरे उद्धत वचनों से क्रोधित हुए जरासंध ने समुद्रपाल आदि राजाओं को आदेश देते हुए कहा : -- " सर्व प्रथम यह रुधिर राजा ही इस दुरस्थिति का कारण है । इसी ने राजाओं में विरोधजन्य स्थिति उत्पन्न की है। दूसरा यह ढोली भी अपराधी है, जो राजकुमारी प्राप्त कर के घमण्डी वन है और अपना वामन रूप भुला कर विराट होने का दम भर रहा है । इन दोनों को मार डालो।" Jain Education International जरासंध की आज्ञा होते ही समुद्रविजयादि राजा, युद्ध करने के लिए तत्पर हुए। उस समय दधिमुख नामक विद्याधर, अपना रथ ले कर उपस्थित हुआ और स्वयं सारथी बन कर सुदेव का सहायक बना । वसुदेव रथारूढ़ हो कर, रानी वेगवती की माता द्वारा दिये हुए धनुष्यादि शस्त्र से युद्ध करने लगा । रुधिर नरेश भी वसुदेव के पक्ष में ससैन्य युद्ध करने लगे । किन्तु जरासंध के पक्ष ने उन्हें पराजित कर दिया ! उनकी सेना भाग गई, तब वसुदेव आगे बढ़ कर युद्ध करने लगे। थोड़ी देर में ही उन्होंने शत्रुंजय राजा को हरा दिया और दतक तथा शल्य को पीछे हटने पर विवश कर दिया। अपने पक्ष की पराजय देख कर जरासंध ने राजा समुद्रविजय को प्रेरित करते हुए कहा; -- "लगता है कि यह कोई ढोली या सामान्य मनुष्य नहीं है । इसे पराजित करना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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