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________________ दमयंती मौसी के घर पहुंची ३४१ वापिका पर एक ऐसी सुन्दर युवती बैठी है, जो किसी सम्माननीय कुल की अनुपम सुन्दरी है। वह अकेली है और विपत्तिग्रस्त है। रानी ने कहा-"तुम जाओ और उसे यहाँ ले आओ। वह चन्द्रवती की सखी हो जायगी।" दासियें आई और दमयंती से राजप्रासाद में चलने का आग्रह करने लगी। दमयंती दासियों के साथ रानी के पास पहुंची। रानी चन्द्रयशा, दमयंती की सगी मौसी थी, किंतु दमयंती नहीं जानती थी। और महारानी भी उसे नहीं पहिचान सकी । उसने बाल्य अवस्था में दमयंती को देखी थी । अचलपुर नरेश ऋतुपर्णजी, महाराज नल की आज्ञा में रह कर राज करते थे । दमयंती को देखते ही रानी आकर्षित हो गई और वात्सल्य भाव से आलिंगन कर पास बिठाई । दमयंती, रानी के चरणों में नमन कर के बैठ गई। उसका मख-चन्द्र आँसुओं से भीग रहा था। रानी ने सान्त्वना दी और परिचय पूछा । दमयंती ने अपना सही सही परिचय देना उपयुक्त नहीं समझ कर, एक व्यापरी की वन में छुटी हुई पत्नी के रूप में परिचय दिया। रानी चन्द्रयशा ने दमयंती को संतोष दिलाते हुए कहा--" मैं तुझे अपनी पुत्री राजकुमारी चन्द्रवती के समान समझूगी । तू उसके साथ सुखपूर्वक रह।" रानी ने राजकुमारी को बुला कर दमयंती का परिचय देते हुए कहा - "पुत्री ! इसे देख । यह मेरी भानजी दमयंती जैसी लगती है । मैंने उसे वाल अवस्था में देखी थी। अब वह भी इतनी ही बड़ी होगी। परंतु वह यहाँ कसे आ सकती है ? वह तो हमारी स्वामिनी है, जिनके राज्य में हमारा यह छोटासा राज्य है ! वह यहाँ से १४४ योजन दूर है । वह अपने यहां आवे भी कैसे ?" राजकुमारी चन्द्रवती के साथ दमयंती बहिन के समान रहने लगी। रानी चन्द्रयशा प्रतिदिन नगर के बाहर जा कर दीन और अनाथजनों को दान दिया करती थी। एक दिन दमयंती ने रानी से कहा -“ यदि आप आज्ञा दें, तो आपकी ओर से मैं दान दिया करूं। संभव है याचकों में कभी मेरे पति भी हों, तो, मिल जायें ।" रानी ने स्वीकृति दी और दमयंती दान करने लगी। वह याचकों से अपने पति की आकृति का वर्णन कर के पूछती कि ऐसी आकृति वाला पुरुष तुम ने कही देखा है ?" एक दिन वैदर्भी दान कर रही थी कि उधर से आरक्षक एक बन्दी को मृत्यु-दण्ड देने ले जाते दिखाई दिये । उसने आरक्षकों को बुला कर बन्दी का अपराध पूछा । उन्होंने कहा--" इसने राजकुमारी की रत्नों की पिटारी चुराई । इसलिये इसे मृत्यु-दण्ड दिया जा रहा है।" बन्दी ने वैदर्भी की ओर देख कर दया की याचना करते हुए कहा " देवी ! आप दया की अवतार हैं । मुझे आपके दर्शन हुए हैं। अब मुझे विश्वास है कि मैं दण्ड-मुक्त हो जाऊँगा । आप ही मेरे लिए शरणभूत हैं।" दमयंती ने चोर को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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