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________________ दमयंती के प्रभाव से वर्षा थमी और तापस जैन बने ३३७ किया। वसंत सार्थवाह ने उस स्थान पर नगर बसाया और सभी मार्थजन तथा तापस लोग वहीं रहने लगे। उसने बाहर से अन्य व्यापारियों और दूसरे लोगों को भी बुला कर बसाया । नगर का नाम 'तापसपुर' रखा गया। सभी लोग शान्तिपूर्वक धर्म की आराधना करते हुए रहने लगे। - कालान्तर में अर्द्धरात्रि के समय दमयंती ने पर्वत-शिखर पर सूर्य के प्रकाश जैसा दृश्य देखा । उसने देखा-आकाश-मण्डल से अनेक देव-विमान उस पर्वत पर आ रहे हैं। उनके जय-जयकार शब्द से तापसपुर के सभी निवासी जाग गए । उन सब को बड़ा आश्चर्य हआ। फिर दमयंती और तापसपर निवासी पर्वत पर पहंच। वहां श्री सिंहकेसरी मुनि का केवलज्ञान हुआ था। देवगण, केवल-महोत्सव कर रहे थे । सभी लोगों ने सर्वज्ञ भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया और भगवान् के चरणों में नत-मस्तक हो बैठ गए। उसी समय सर्वज्ञ भगवान् के गुरु आचार्य यशोभद्रजी वहाँ आए और अपने शिष्य को केवलज्ञानी जान कर वन्दना की। सर्वज्ञ भगवान् ने धर्मोपदेश दिया और तापसों के सन्देह का निवारण करते हुए कहा, "इस दमयंती ने तुम्हें धर्म का स्वरूप बतलाया, वह यथार्थ है । यह सरल महिला धर्म-मार्ग की पथिक है। इसके आत्म-बल का चमत्कार भी तुमने देख लिया है । इसने अपने रेखा-कुण्ड में मेघ को प्रवेश ही नहीं करने दिया। इसके सतीत्व एवं धर्म के प्रभाव से देव भी इसके सानिध्य में रहते हैं। भयानक वन में भी यह निर्भय एवं सुरक्षित रहती है । इसकी एक हुँकार मात्र से डाकू-दल भाग गया और पूरे सार्थ की रक्षा हुई । इससे अधिक और क्या प्रभाव होगा ?....... हडात् एक महद्धिक देव वहाँ आया और भगवंत को वन्दना करने के बाद दमयंती से बोला;-- “यशस्विनी माता ! मैं इस तपोवन के कुलपति का कर्पर नाम का शिष्य था। मैं तप-साधना में लगा रहता था और सदैव पञ्चाग्नि से तपता रहता था, किंतु तपोवन के तपस्वियों में से किसी ने भी मेरी तपस्या की सराहना नहीं की, न मेरा अभिनन्दन किया । इस उपेक्षा से मैं क्रोधित हुआ और तपोवन छोड़ कर चल निकला । रात्रि के समय चलते हुए मैं एक ऊँडे गड्ढे में गिर पड़ा । मेरा मस्तक और मुंह, एक पत्थर के गंभीर आघात से क्षत-विक्षत हो गये। मेरी नाक टूट गई और दांत भी सभी टूट गए। मैं मूच्छित हो कर उस खड्डे में ही पड़ा रहा। मूर्छा दूर होने पर मेरे शरीर में असह्य पीड़ा होती रही। मेरे आश्रम छोड़ कर निकल जाने पर भी किसी ने मेरी खोज-खबर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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