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________________ जुआ खल कर राज्य हारे x वन-गमन ३२७ पाथेय भी कब तक मेरी पूर्ति करेगा ? नहीं, में नहीं लंगा।" .. --‘राजेन्द्र ! हम आपके चिरकाल के सेवक हैं और आपके साथ ही वन में आना चाहते हैं, परन्तु ये कुबर हमें रोकते हैं । ये भी इस राजवंश के ही वंशज हैं । यहाँ के राजवंश और राज्याधिकारी को सहयोग देना हमारा कर्तव्य है। इसलिए हम चाहते हुए भी आपके साथ नहीं आ सकते । इस विपत्ति के समय महारानी दमयंती ही आपकी पत्नी, सहधर्मिणी, मन्त्री, मित्र और सेविका है । आप इनकी सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखिये गा । हमें चिन्ता है कि महारानी दमयती, शिरीष के पुष्प के समान कोमल चरणवाली, कंकर-पत्थर काँटे और परिली-भूमि पर किस प्रकार चल सकेगी? भयानक वन के कष्ट कैसे सहन कर सकेगी ? इस तीव्र उष्ण ऋतु की भयानक उष्णता, तवे के समान तपती भूमि और लू की झलसा देने वाली लपटों में यह कोमलांगी किस प्रकार सुरक्षित रह सकेगी ? इसलिए हमारी प्रार्थना है कि आप रथ की भेंट स्वीकार कर लीजिए । आपका प्रवास कल्याणकारी हो ." मन्त्रियों और शिष्ट-जनों की आग्रहपूर्ण प्रार्थना सुन कर नल ने रथ स्वीकार किया और दमयंती सहित रथ में बैठ कर नगर के बाहर जाने लगा। प्रयाण के समय दमयंती के शरीर पर मात्र एक ही वस्त्र था । राजरानी को एक ही वस्त्र से ढकी हुई और सर्वथा अकिंचन दशा में देख कर नगर की महिलाएं रोने लगी। - नगर के मध्य ही कर रथ जाने लगा, तब उन्होंने दिग्गज के आलान-स्तंभ जैसा पांच सौ हाथ ऊँचा एक स्तंभ देग्या । नल रथ से नीचे उतरे और जिस प्रकार हाथी, कदलीस्तंभ को उखाड़े, उसी प्रकार नल ने उस स्तंभ को उखाड़ डाला और फिर वहीं गाड़ दिया । नल का ऐसा पराक्रम जान कर नागरिक जन आश्चर्य करने लगे। नल जब बालक थे और कुवर के साथ क्रीड़ा करने के लिए नगर के बाहर उद्यान में गए थे, तो वहाँ उन्हें एक महाज्ञानी महात्मा मिले थे। उन महर्षि ने कहा था कि-- ___ "पूर्वभव में मुनि को दिये हुए क्षीरदान के प्रभाव से यह नल, आधे भरत का स्वामी होगा। यह इस नगरी के दीर्घकाय स्तंभ को उखाड़े गा और इस नगरी का जीवन पर्यंत स्वामी रहेगा।" ... महर्षि के वचनों का पूर्वभाग तो सत्य सिद्ध हुआ, किंतु राज्य-त्याग ने भविष्य • यह राज्य उत्थापन और पुनः स्थापन की क्रिया का प्रतीक था। यदि कोई साम्राज्य की आशा नहीं मानता, तो उसे गज्य से हटा दिया जाता और पुन: आजा मानने पर राज्य पर स्थापित किया जाता। यह स्तंभ यही बतला रहा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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