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जादूगर द्वारा हरण और नर-राक्षस का मरण
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पहुँचे । रात वहीं व्यतीत कर दक्षिण-दिशा की ओर चले और एक पर्वत की तलहटी में बसे हुए गांव में पहुँचे । वहाँ कई ब्राह्मण मिल कर उच्च ध्वनि से वेद-पाठ कर रहे थे। वसुदेव के पूछने पर एक ब्राह्मण ने कहा: -
“रावण के समय दिवाकर नाम के विद्याधर ने नारदजी को अपनी पुत्री दी थी। उनके वंश में सुरदेव नाम का ब्राह्मण है और वही इस गांव का मुखिया है । उसके क्षत्रिया नाम की पत्नी से सोमश्री नाम की पुत्री है । वह वेद शास्त्रों की ज्ञाता है। उसके पिता ने उसके लिए वर के विषय में कराल नाम के ज्ञानी से पूछा, तो उसने कहा था कि "जो व्यक्ति वेद सम्बन्धी शास्त्रार्थ में सोमश्री को जीतेगा, वही उसका स्वामी होगा।" ये जितने भी वेदाभ्यासी ब्राह्मण है, वे सभी सोमश्री पर विजय प्राप्त करने के लिए वेद पढ़ रहे हैं ।" वसुदेव श्री ब्राह्मण का रूप बना कर वेदाचार्य ब्रह्मदत्त के पास गया और बोला; - "मैं गौतम-गोत्रीय स्कन्दिल नाम का ब्राह्मण हूँ और वेदाभ्यास करना चाहता हूँ।' वसुदेव ने अभ्यास किया और शास्त्रार्थ में सोमश्री से विजय प्राप्त कर के उसके साथ लग्न किये और वहीं रह कर सुखपूर्वक काल बिताने लगा।
जादूगर द्वारा हरण और नर-राक्षस का मरण
एक दिन वसुदेव, उद्यान में गए। वहां उन्होंने इन्द्र शर्मा नामक इन्द्रजालिक के आश्चर्यकारक जादुई विद्या के चमत्कार देखे । वसुदेव ने इन्द्रशर्मा से कहा-" तुम मुझे यह विद्या सिखा दो।" इन्द्र शर्मा ने कहा--" मैं तुम्हें मानस-मोहिनी विद्या सिखा दूंगा, किन्तु उसकी साधना विकट एवं कठोर है । सन्ध्या समय साधना प्रारम्भ होती है, जो सूर्योदय तक चलती है। किन्तु साधनाकाल में विपत्तियां बहुत आती है । इसलिए किसी सहायक मित्र की आवश्यकता होगी । यदि तुम्हारे पास कोई सहायक नहीं हो, तो मैं और मेरी पत्नी तुम्हारी सहायता करेंगे।" वसुदेव साधना करने लगे। उस समय उस धूत इन्द्र शर्मा ने वसुदेव को एक शिविका में बिठा कर हरण किया। पहले तो वसुदेव ने इसे साधना में उपसर्ग समझा और स्थिर रहे, किंतु प्रातःकाल होने पर वे समझ गए कि 'मायावी इन्द्रशर्मा ही मुझे लिये जा रहा है। वे शिविका में से उतरे। इन्द्रशर्मा ने उन्हें पकड़ने का यत्न किया, किंतु वे उसके हाथ नहीं आये और दूर निकल गए । संध्या समय
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