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________________ तीर्थकर चरित्र इस आपत्ति का निवारण कैसे हो ?" " विष्णुकुमार मुनि लब्धिधर हैं । वे महागजा महापद्म के ज्येष्ठ-बंधु हैं । यदि वे आ जाय, तो कदाचित् यह विपत्ति टल सकती है। किंतु उनके पास वही जा सकता है जो विद्याचारण-लब्धि से युक्त हो । वे अभी मेरुपर्वत पर हैं'--एक साधु ने कहा। ___" मैं आकाश-मार्ग से वहाँ जा सकता हूँ, किन्तु लौट कर कर आ नहीं सकता"-एक लब्धिधर मुनि ने कहा । " वत्स ! तुम विष्णुकुमार मुनि के पास जा कर सारी हकीकत कहो और उन्हें यहाँ लाओ। वे तुम्हें अपने साथ ले आवेंगे"-आचार्य ने आज्ञा दी। वे मुनि उसी समय आकाश-मार्ग से चल कर मेरुपर्वत पर आये और विष्णुकुमार मुनि को सारी स्थिति बतलाई । विष्णुकुमार मुनि तत्काल उन मुनि को साथ ले कर हस्तिनापुर आये और अपने गुरु सुव्रताचार्य को वन्दना की। फिर वे साधुओं को साथ ले कर नमुचि के पास आये । उन्होंने नमुचि को बहुत समझाया, परन्तु वह नहीं माना । उसने आवेश पूर्वक कहा;-- --"मैं तुम्हें नगर के बाहर उद्यान में भी नहीं रहने देता। तुम पाखंडियों की गंध से भी मैं घृणा करता हूँ। तुम सब यहाँ से चले जाओ।" -"अरे कम से कम मेरे लिए तीन चरण भूमि तो दो"--मुनिश्री ने अंतिम याचना की। -- मैं तुम्हारे लिए तीन चरण (तीन कदम में आवे जितनी) भूमि देता हूँ । यदि इसके बाहर कोई भी रहा, तो वह मार दिया जायगा"--नमचि ने कहा। “तथास्तु'--कह कर विष्णुकुमार मुनि ने वैक्रिय-लब्धि से अपना शरीर बढ़ाया और एक लाख योजन प्रमाण शरीर बढ़ा कर भयंकर दृश्य उपस्थित कर दिया । खेचरगण भयभीत हो कर इधर-उधर भागने लगे। पृथ्वी कम्पायमान हो गई । समुद्र विक्षुब्ध हो गया। ग्रह-नक्षत्रादि ज्योतिषी और व्यंतर देव-देवियाँ स्तब्ध एवं चकित रह गए। विष्णुकुमार नमुचि को पृथ्वी पर गिरा कर अपना एक पाँव समुद्र के पूर्व और एक पांव पश्चिम किनारे पर रख कर खड़े रहे। उत्पात की बात सुन कर चक्रवर्ती महाराजा महापद्म भी आये और मुनिवर को वन्दना कर अपने उपेक्षाजन्य अपराध के लिए क्षमा माँगी । नरेन्द्र, नगरजन और संघ द्वारा बारबार प्रार्थना करने पर श्री विष्णुकुमार मुनि शांत हुए। वे वैक्रिय रूप छोड़ कर मूलरूप में आये और नमुचि को छोड़ दिया । चक्रवर्ती ने नमुचि को पद भ्रष्ट कर निकाल दिया । मुनिराज ने प्रायश्चित्त से चारित्र की शुद्धि कर, विशुद्ध साधना से समस्त कर्मों का क्षय कर दिया और मुक्ति प्राप्त कर ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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