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________________ २८८ तीर्थङ्कर चरित्र भयंकर दुर्दशा में से मुझे बचाया और जीवनदान दिया । आप मेरे महान् उपकारी हैं । कहिये, मैं आपका क्या हित करूँ, जिससे कुछ मात्रा में भी ऋण-मुक्त बनूं । ___ "महानुभाव ! मैं तो आपके दर्शन से ही कृतार्थ हो गया। अब मुझे कुछ भी आवश्यकता नहीं है।" इतना सुनने पर वह विद्याधर मुझे प्रणाम कर आकाश में उड़ कर चला गया और मैं अपने घर गया । कालान्तर में मेरा विवाह मेरे मामा की पुत्री मित्रवती के साथ हो गया । मै कला में अधिक रुचि रखता था, इससे मेरी रुचि भोग की ओर नहीं लगी । मुझे स्त्री में अनासक्त जान कर मेरे पिता चिंतित हुए। उन्होंने मुझे शृगाररस की ललित-क्रियाओं में लगाया। मैं स्वेच्छाचारी बना और एक दिन कलिंगसेना वेश्या की पुत्री बसंतसेना के सहवास में पहुँच गया। वहां मैं बारह वर्ष रहा और बाप की कमाई का सोलह करोड़ स्वर्ण उड़ा दिया। अंत में निर्धन जान कर, कलिंगसेना ने मुझे अपने आवास से निकाल दिया। बसंतसेना का मुझ पर प्रगाढ़ स्नेह था। किंतु माता के आगे उसकी एक नहीं चली । वह छटपटती रही और मैं उससे बिछुड़ गया । मैं घर आया, तब मालम हुआ कि माता-पिता तो कभी के स्वर्गवासी हो गए हैं और घर में दरिद्रता पूरी तरह छा गई है । मैंने अपनी पत्नी के गहने बेच कर व्यापार के लिए धन प्राप्त किया और मामा के साथ उशीरवर्ती नगरी आया। वहाँ मैने कपास खरीदा। कपास ले कर मैं ताम्रलिप्ति नगरी जा रहा था कि मार्ग में लगे हुए दावानल में सारा कपास जल गया और मैं फिर से निराधर बन गया। मेरे मामा ने मुझे दुर्भागी जान कर छोड़ दिया। इसके बाद मैं घोड़ पर बैठ कर अकेला ही पश्चिम दिशा की ओर चला, किन्तु मेरा दुर्भाग्य अभी उन्नति पर बढ़ रहा था, सो थोड़ी ही दूर गया हुँगा कि मेरा घोड़ा मर गया। अब मैं अपना सामान उठा कर पैदल ही चलने लगा । कहाँ तो में दिनरात सुख-भोग में ही लीन रहने वाला और कहां मेरी यह सर्वथा निराधार अवस्था । में भूख-प्यास से पीड़ित और चलने के श्रम से थका हुआ क्लान्त, दुःखी अवस्था में प्रियंग नगर में पहुँचा । यह नगर व्यापार का केन्द्र था। वहाँ मेरे पिता के मित्र सुरेन्द्रदत्त रहते थे। वे मुझे अपने घर ले गए और भोजन तथा वस्त्र से संतुष्ट किया । वहाँ पुत्र के समान मेरा पालन किया जाने लगा। फिर उनसे एक लाख द्रव्य ब्याज पर ले कर में व्यापार में लगा। मैंने कुछ चीजें खरीदी और जहाज भर कर विदेश चला गया। मैंने कई ग्रामों में जा कर व्यापार किया और आठ कोटी स्वर्ण उपार्जन किया। फिर मैंने अपना समस्त द्रव्य जहाज में भर कर घर के लिए प्रस्थान किया । इस समय मेरा दुर्भाग्य फिर जागा और जहाज टूट कर डूब गया । मैं एक पटिये के सहारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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