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________________ २८६ तीर्थकर चरित्र स्थान पर आया। वसुदेव की हास्यास्पद वेशभूषा और बोलचाल से सभी सभासद एवं दर्शक प्रभावित हुए। उन्हें मनोरंजन का एक स धन मिल गया। लोगों ने वसुदेव का व्यंगपूर्वक आदर किया और कहा--"हां भाई ! तुम हो भाग्यशाली । तुम्ही जीतोगे और गन्धर्वसेना तुम्हारे साथ ही लग्न करेगी।" वसुदेव भी तत्काल बोले--" इस सारी सभा में मेरे समान और हैं ही कौन, जो गन्धर्वसेना के योग्य पति हा सके ?'' लोग हँसे और बोले--"अवश्य, अवश्य । तुम से बढ़ कर और है ही कौन ? जाओ आगे बैठो"-- कहते हुए न्यायाचार्य के समीप ही बिठा दिया। वे भी लोगों का मन लुभाने लगे। इतने में देवांगना के समान उत्कृष्ट रूपधारिणी गन्धर्वसेना सभा में उपस्थित हुई । सभा का वातावरण एकदम शान्त हो गया। प्रतियोगिता प्रारंभ हुई । थोड़ी ही देर में अन्य सभी प्रत्याशी परास्त हो गए। अंत में वसुदेव की बारी आई । उन्होंने अबतक अपना वास्तविक रूप बना लिया था। गन्धर्वसेना की दृष्टि वसुदेव पर पड़ी, तो वह प्रभावित हो गई। कुमार को सभागृह से बजाने के लिए एक वीणा दी गई । उस वीणा को देखते ही कुमार ने लौटाते हुए कहा-" यह दूषित है।" इसी प्रकार जितनी वीणा दी गई, उनमें कुछ-नकुछ दोष बता कर लौटा दी गई । अन्त में गन्धर्वसेना ने अपनी वीणा दी । कुमार ने उसे देख-परख कर सज्ज को और पूछा--"शुभे ! क्या मुझे इस वीणा के साथ गायन भी करना पड़ेगा ?" गन्धर्वसेना ने कहा--" हे संगीतज्ञ ! पद्म चक्रवर्ती के ज्येष्ठ-बन्धु विष्णुकुमार मुनि द्वारा रचित त्रिविक्रम सम्बन्धी गीत इस वीणा में बजाइए।" कुमार वीमा बजाने लगे। उन्होंने इस प्रकार वीणा द्वारा उस गीत को राग दिया कि जैसे साक्षात् सरस्वती हो । सभासद, दर्शक. संगीताचार्य और गन्धर्वसेना सभी मग्ध हो मए । कुमार का विजय-घोष हुआ। अन्य सभी प्रतियोगी हताश हो कर लौट गए । चारुदत्त सेठ, कुमार को सम्मानपूर्वक अपने घर लाया और शुभ मुहूर्त में विवाह सम्पन्न होने लगा। विवाह-विधि के समय चारुदत्त ने कुमार से पूछा--" आपका गात्र क्या है ? मैं क्या कह कर संकल्प करूं?" वसुदेव ने कहा--"जो आपको अच्छा लगे ।" सेठ ने कहा--"आप इसे वणिक-पुत्री जान कर हँसते होंगे, किंतु में इसका वृत्तांत आपको फिर सुनाऊँगा।" लग्न सम्पन्न हो गया। इसके बाद दोनों संगीताचार्यों ने भी अपनी श्यामा और विजया नाम की पुत्रियां व नुदेव के साथ ब्याह दी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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