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तीर्थंकर चरित्र
दर्शन एवं मिलन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन महापुरुष के सुयोग से मैं भी अपना जीवन उन्नत बना सकूँगा।
राजकुमार चित्रगति अब वहाँ से प्रयाण कर स्वस्थान जाना चाहते थे। किन्तु सुमित्र ने कहा--"महानुभाव ! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी महामुनि सुयशजी हैं
और वे विहार कर के इधर ही पधार रहे हैं । इसलिए आप कुछ दिन यहाँ ठहरने की कृपा करें । भगवान् के पधारने पर उनकी वन्दना कर के आप भले ही पधार जावें।" चित्रगति रुके और सुमित्र के साथ क्रीड़ा करते हुए कुछ दिन व्यतीत किये । एक दिन दोनों मित्र उद्यान में टहल रहे थे कि उनकी दृष्टि सर्वज्ञ भगवान् सुयशजी पर पड़ी । वे तत्काल भगवान के समीप आये और वन्दना-नमस्कार किया। सुग्रीव नरेश, मन्त्रीगण
और नागरिक भी भगवान् के पधारने के समाचार जान कर दर्शनार्थ आये। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश सुन कर चित्रगति कुमार, बहुत प्रभावित हुआ। उसने सम्यक्त्व पूर्वक देशविरत धर्म ग्रहण किया। इसके बाद सुग्रीव नरेश ने पूछा ;--"भगवन् ! मेरे सुपुत्र सुमित्र को विष दे कर भद्रा कहाँ गई और अब वह कहाँ किस दशा में है ?"
“राजन् ! भद्रा यहाँ से भाग कर वन में गई। उसे चोरों ने लूट लिया और पल्लीपति को अर्पण कर दी । पल्लीपति ने उसे एक व्यवहारी के हाथ बेंच दी । व्यापारी को भी छल कर भद्रा अरण्य में चली गई और वहाँ लगे हुए दावानल में जल गई तथा राद्रध्यानपूर्वक मर कर प्रथम नरक में उत्पन्न हुई । नरक का आयु पूर्ण कर वह चाण्डाल के यहाँ जन्म लेगी । जब वह गर्भवती होगी, तो उसकी सौत उसे मार डालेगी। फिर वह तीसरी नरक में उत्पन्न होगी । वहाँ से निकल कर तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होगी। इस प्रकार वह दुःख-परम्परा भोगती हुई संसार में अनन्त दुःख को प्राप्त करेगी।"
रानी का दुःखमय भविष्य जान कर राजा को विचार हुआ कि-"जिस पुत्र के लिए रानी ने कुमार को विष दिया, वह तो यहाँ बैठा हुआ सुख भोग रहा है और वह नरक में दुःख भोग रही है । यह कैसा विचित्र और दुःखमय संसार है । धिक्कार है इस विषय और कषायरूपी आग को । आत्मार्थियों के लिए तो यह तुष्टि का स्थान है ही नहीं उसने कहा--" मैं संसार का त्याग कर प्रव्रज्या स्वीकार करूँगा।"
पिता की तत्परता देख कर कुमार सुमित्र ने कहा-- 'पिताश्री ! मैं कितना अधम हूँ ! मेरे ही कारण मेरी माता को नरक में जाना पड़ा। यदि में नहीं होता, या में यहाँ से कहीं अन्यत्र चला जाता, तो उसकी यह दशा नहीं होती । म स्वयं अभागा हूँ। मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं प्रव्रज्या ग्रहण कर आत्मकल्याण करूँ।"
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