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धर्मदेशना -- मार्गानुसारिता
औषधी आदि का दान करने में तत्पर रहने वाला । परोपकारी व्यक्ति का हृदय कोमल होता है, उसमें अन्य गुणों की उत्पत्ति सहज हो जाती है ।
३४ छः अन्तर्शत्रुओं को हटाने वाला -- काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष, ये छः अन्तरंग—-भाव-शत्रु हैं । इनको हृदय में से निकालने में प्रयत्नशील रहने वाला । विवेक युक्त रह कर अयोग्य स्थल एवं अयोग्य काल में तो इन को पास ही नहीं फटकने दे, अन्यथा अशान्ति उत्पन्न हो जाती है ।
३५ इन्द्रियों को वश में रखने वाला । इन्द्रियों को बिलकुल निरंकुश छोड़ देने से तो एकांत पापमय जीवन हो जाता है। ऐसा जीव, धर्म के योग्य नहीं रहता । धर्म पाने के योग्य वही जीव होता है, जिसका इन्द्रियों पर बहुत कुछ अधिकार होता है ।
जिन मनुष्यों में इस प्रकार के सामान्य गुण होते हैं, वे गृहस्थ योग्य विशेष-धर्म ( सम्यक्त्व मूल बारह व्रत ) धारण करने के योग्य होते हैं । जो मनुष्य गृहवास में रह कर ही मनुष्य जन्म को सफल करना चाहते हैं और सर्व विरत रूप यति-धर्म धारण करने में अशक्त हैं, उन्हें श्रावक-धर्म का सदैव आचरण करना चाहिए * I
प्रभु के इन्द्र आदि १८ गणधर हुए । केवलज्ञान होने के बाद भ. मुनिसुव्रत स्वामी साढ़े ग्यारह मास कम साढ़े सात हजार वर्ष त विचर कर भव्य जीवों का कल्याण
करते रहे ।
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भगवान् ३०००० साधु, ५०००० साध्वियें, ५०० चौदह पूर्वधर, १८०० अवधिज्ञानी, १५०० मनः पर्यवज्ञानी १८०० केवलज्ञानी, २००० वैक्रिय लब्धिधारी, १२०० वादलब्धिधारी, १७२००० श्रावक और ३५०००० श्राविकाएँ हुई । निर्वाणकाल निकट होने पर भगवान् सम्मेदशिखर पर्वत पर पधारे और एक हजार मुनियों के साथ अनशन किया । एक मास के अन्त में ज्येष्ठकृष्णा ६ को श्रवण नक्षत्र में मोक्ष पधारे । भगवान् की कुल आयु ३०००० वर्ष की थी ।
* इत पेंतीस गुणों का जो वर्णन किया गया है, उसमें सांसारिक सावद्य प्रवृत्ति का निर्देश भी हैं। तीर्थंकर भगवंत के उपदेश में ऐसा नहीं होता। यह आचार्यश्री की ओर से ही समझना चाहिये ।
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