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तीर्थकर चरित्र
जानते थे। इसलिए उनकी ओर से प्रहार होता, वह बड़ी सावधानी से--उन्हें बचाते हुए होता। किंतु राम-लक्ष्मण तो इन कुमारों के साथ अपना सम्बन्ध जानते ही नहीं थे। इसलिए उनके प्रहार में ऐसी सावधानी नहीं थी। चिरकाल विविध आयुधों से युद्ध करने के बाद, युद्ध शीघ्र समाप्त करने की इच्छा से रामभद्रजी ने कृतांतवदन से कहा--
" रथ को ठीक शत्रु के सामने खड़ा कर दो।" ।
"महाराज ! अश्व थक गये हैं। इनके शरीर भी बाणों के घावों से विध गए हैं, रक्त बह रहा है । मैं इन्हें मार-मार कर थक गया, किंतु ये आगे बढ़ते ही नहीं। रथ भी टूट-फूट कर जीर्ण हो गया । अब मैं क्या करूँ ? मेरे भुजदण्ड भी जर्जर हो गए हैं। मैं घोड़ों की रास भी सम्भाल नहीं सकता। विवश हो गया हूँ--महाराज ! ऐसी दुर्दशा तो पहले कभी नहीं हुई थी।"
-"हां, स्थिति कुछ ऐसी ही है। मेरा वज्रावर्त धनुष भी शिथिल हो गया, मुसलरत्न भी असमर्थ हो गया और हल-रत्न भी केवल खेत जोतने के काम का बन रहा है । इन देव-रक्षित अस्त्र-शस्त्रों की यह क्या दशा हो गई ?"
-राम आश्चर्यान्वित एवं चिन्तित हो रहे थे। उधर लक्ष्मणजी की भी यही दशा थी। अंकुश के भीषण प्रहार से लक्ष्मणजी मूच्छित हो कर गिर पड़े। उन्हें मूच्छित हुए देख कर विराध घबड़ाया और रथ को मोड़ कर अयोध्या की ओर जाने लगा। इतने में लक्ष्मणजी सावधान हो गए। उन्होंने कहा--
___“यह क्या कर रहे हो--विराध ? युद्ध-क्षेत्र से जीवित ही भगा रहे हो मुझे ? लौटो, शीघ्र लौटो । मुझे तत्काल शत्रु के समक्ष ले चलो। मैं अभी चक्ररत्न के प्रहार से उसे धराशायी कर दूंगा।" ।
रथ पुनः रणक्षेत्र में शत्रु के समक्ष आ कर खड़ा हो गया। अंकुश को ललकारते हुए लक्ष्मण ने चक्र घुमा कर फेंका । चक्र को अपनी ओर आता हुआ देख कर उसे तोड़ने के लिए दोनों बन्धुओं ने शस्त्रों से भीषण प्रहार किया, किन्तु चक्र वज्रवत् अखण्ड रहा और निकट आ कर अंकुश की प्रदक्षिणा कर के लौट गया तथा लक्ष्मणजी के हाथ में आ गया । लक्ष्मणजी, चक्र को लौटते देख कर चकित रह गए। उन्होंने पुनः चक्र को घुमा कर फेंका, किंतु इस बार भी वह परिक्रमा कर के लौट आया। लक्ष्मणजी अत्यन्त चिंतित हुए। उन्होंने सोचा- 'क्या ये नये बलदेव और वासुदेव उत्पन्न हुए हैं ? ऐसा तो होता नहीं । फिर क्या कारण है--हमारी इस दुर्दशा का ? इन छोकरों के सम्मुख हमारी यह शिथिलता क्यों हुई ?"
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