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________________ अपशकुन और पुनः युद्ध १८३ रावण के ऐसे विषमय वचनों को सीता सहन नहीं कर सकी । वह तत्काल मूच्छित होकर गिर पड़ी। सावधान होने पर सीता ने प्रतिज्ञा की. कि-- "यदि राम-लक्ष्मण का देहावसान हो जाय,तो उसी समय से मेरा आजीवन अनशन होगा।" सीता की प्रतिज्ञा सुन कर रावण निराश हो गया। उसने समझ लिया--" सीता की दृढ़ता में कोई कमी नहीं आई। अब इसे अपनी बनाने की आशा रखना व्यर्थ है । इसे राम को सौंप देना ही उत्तम होगा। मैंने यह बड़ी भूल की कि भाई विभीषण का अपमान कर निकाल दिया, मन्त्रियों का सत्परामर्श नहीं माना और प्रारंभ में ही अनीति का मार्ग पकड कर कुल को कलंकित किया । अब सीता को लौटा देना ही उचित है । परन्तु यों सामने ले जा कर अर्पण करना तो अपमानजक होगा। मेरी पराजय मानी जायगी । मैं युद्ध में राम-लक्ष्मण को जोत कर बन्दी बनालूं और यहां लाऊँ और सीता उन्हें दे कर सद्भावना बना लूं । ऐसा करने से मेरा अपवाद मिटेगा, नीति अक्षुण्ण रह जायगी और यश भी बढ़ेगा। बस यही ठीक है।" इस प्रकार सोच कर वह लौट आया और दूसरे दिन युद्ध के लिए तैयार हो कर चल निकला। अपशकुन और पुनः युद्ध प्रस्थान करते हुए और मार्ग में उसे अनेक प्रकार के अपशकुन हुए। किंतु वह चला ही गया। दोनों सेनाएँ प्राणपण से भिड़ गई । लक्ष्मणजी, अन्य सभी शत्रुओं को छोड़ कर रावण पर ही प्रहार करने लगे । लक्ष्मण जी के तीव्र-प्रहार से रावण आशंकित हो गया। उसे अपनी विजय में अविश्वास हो गया। उसने बहुरूपा विद्या का स्मरण किया। विद्या उपस्थित हुई । विद्याबल से रावण ने अपने महा भयंकर अनेक रूप बनाये और सभी रूपों से विविध प्रकार के अस्त्रों से लक्ष्मण पर प्रहार किया जाने लगा । लक्ष्मणजी तत्काल गरुढ़ पर आरूढ़ हो कर चारों ओर फिरते हुए. यथेच्छ प्राप्त होते हुए बाणों से रावण के सभी रूपों पर प्रहार करने लगे। लक्ष्मण जी के तत्परतापूर्वक वाण-प्रहार से रावण घबड़ा गया। उसने अपने अर्द्धचक्री के चिन्हरूप अन्तिम अस्त्र, चक्र का स्मरण किया। चक्र के उपस्थित होते ही रावण ने क्रोधपूर्वक उसे घुमाया और संपूर्ण बल लक्ष्मण पर फेंका । चक्र लक्ष्मणजी के पास पहुंचा और परिक्रमा कर के उनके दाहिने हाथ में आ गया । चक्र का प्रहार व्यर्थ जाता तथा च क को लमग के हाथ में जाता देख कर रावण चिन्तामग्न हो गया। उसे विचार हुआ-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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