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विजय के लिए रावण की विद्या साधना
युद्ध सम्बन्धी विचार-विनिमय कर रहे थे । दूत ने रामभद्रजी को प्रणाम किया और विनयपूर्वक निवेदन किया;
" मेरे स्वामी ने कहलाया है कि आप मेरे बन्धु आदि को मुक्त कर दें और सीता की मांग छोड़ दें, तो आपको अपना आधा राज्य और तीन हजार कुमारियें दी जायगी । आप बहुत लाभ में रहेंगे। यदि आपने हमारी इतनी उदारता की भी उपेक्षा की, तो फिर आप या आपकी सेना में से कोई भी नहीं बच सकेगा ।"
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- " न तो मुझे राज्य का लोभ है और न राजकुमारियों के साथ भोग की कामना है । यदि रावण, सीता को सम्मान के साथ ला कर हमारे अर्पण करेगा, तो मैं सभी बन्दियों को छोड़ दूंगा और युद्ध का भी अन्त आ जायगा । समझौते का एकमात्र यही उपाय है । इसके सिवाय सभी बातें व्यर्थ है " - - रामभद्रजी ने अपना निर्णय सुनाया ।
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-- " जरा गंभीरता पूर्वक विचार कीजिए। एक स्त्री के लिए इतना भयानक एवं विनाशकारी युद्ध छेड़ना बुद्धिमानी नहीं है, जबकि आपको एक के बदले तीन हजार सुन्दर राजकुमारियाँ और आधा राज्य मिल रहा है। ऐसा लाभ दायक सौदा तो विजेता को ही मिलता है, जबकि आपकी विजय का कुछ भी आशा नहीं है । आप यह मत सोचिये कि एकबार जीवित रहे लक्ष्मण, फिर भी जीवित रह सकेंगे। मेरे स्वामी दशाननजी अकेले ही आप सब को समाप्त करने में समर्थ हैं । यह सन्देश तो केवल सद्भावनावश भेजा है, सो आपको स्वीकार कर लेना चाहिए ।"
" रे, अधम ! तेरा स्वामी किस भ्रम में भूल रहा है। उसे अपनी शक्ति का बड़ा घमण्ड है । उसकी आँखें अब भी नहीं खुली-- जब कि उसका परिवार, सामन्त और योद्धागणों में से बहुत-से युद्ध में खप गए और बहुत-से बन्दी हो गए। अब उसके पास स्त्रियें ही रही है, जिन्हें दे कर वह युद्ध के विनाशक परिणामों से बचना चाहता है ।" " हे दूत ! पुत्री की माँग तो संसार होती है, किन्तु पत्नी माँग तो तेरे दुराचारा स्वामी जैसा ही कर सकता है । फिर भी वह तो चोर है। के बचे हुए उस ठूंठ से कह कि यदि उसमें अपनी शक्ति का रणभूमि में आ जाय । मेरी भुजाएँ उसका गर्व नष्ट करने को ने आवेशपूर्वक कहा ।
अब बिना शाखा प्रशाखा
घमण्ड है, तो शीघ्र ही उद्यत है" -लक्ष्मणजी
विजय के लिए रावण की विद्या साधना
दूत ने रावण को प्रति सन्देश सुनाया । रावण ने फिर मन्त्रियों से पूछा, किन्तु
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