SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सीता को सन्देश रूपसम्पन्न, शीलसम्पन्न एवं पवित्र पत्नी, किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होती है । दुष्ट गवण अपने पाप से सती के निःश्वास से और राम के प्रताप से अवश्य गिरेगा । उसके दुर्दिन आ गये हैं।" हनुमान ने अदृश्य रह कर ही रामभद्रजी की मुद्रिका सीताजी की गोद में डाल दी। अचानक पतिदेव की मुद्रिका देख कर सीता हर्षित हो गई। उसे विश्वास हो गया कि पतिदेव पधारे हैं, या उनका सन्देश ले कर कोई आया है । वह हर्षित होती हुई मुद्रिका को बारबार देखने लगी। उसे मस्तक और हृदय से लगाने लगी। सीता को प्रसन्न देख कर त्रिजटा दौड़ी हुई रावण के पास पहुंची और बोली "स्वामिन् ! सीता प्रसन्न हो गई है। मैंने उसे हँसती हुई देखी है । यह प्रथम समय है कि वह प्रसन्न एवं हँसती हुई दिखाई दी।" त्रिजटा की बात ने रावण को उत्साहित किया । उसने मन्दोदरी से कहा; "प्रिये ! सीता की प्रसन्नता का कारण यही हो सकता है कि वह अब राम से विरक्त हो गई है और मेरी इच्छा कर रही है । तुम इसी समय जाओ और उसे मिष्टवचनों से समझा कर अनुकूल बनाओ।" मन्दोदरी फिर सीता के पास पहुंची और कहने लगी; "महाभागे ! मेरे पतिदेव इस संसार में सर्वोत्तम महापुरुष हैं । वे अपूर्व शक्ति, शौर्य, वैभव और अधिकारों के स्वामी हैं। हजारों राजा उनके सेवक हैं । उनके लिए हजारों अपूर्व सुन्दरियां स्वार्पण करने के मनोरथ कर रही है, फिर भी वे उनकी ओर देखते भी नहीं । उनका स्नेह तुझ पर हुआ है । तू महान् भाग्यशालिनी है । तेरा यह देवांगना जैसा सौन्दर्य, वन के भटकते दरिद्रियों के योग्य नहीं है । यह दुर्भाग्य का ही फल है कि तू अप्सरा जैसी होकर भी उस भील जैसे राम के पल्ले पड़ी। विधाता की इस भूल को सुधारने का समय आ गया है। अब तू मान जा और स्वीकार कर ले । तेरी सेवामें मैं अन्य हजारों रानियों सहित रहूँगी । स्वयं सम्राट तेरे सेवक वन कर रहेंगे। तुझे यह अनुपम अवसर नहीं गवाना चाहिये।" सीता मन्दोदरी की बात सहन नहीं कर सकी । उसने क्रोधित हो कर कहा-- "अरी कूटनी ! तू क्या समझती है मुझे? मैं अब तेरा मुंह भी देखना नहीं चाहती । तू याद रख कि तेरा पापी पति भी उसी रास्ते जाने वाला है---जिस राते खरदूषणादि गये और तेरी भी वही दशा होने वाली है, जो चन्द्रनखा की हुई । मेरे हृदयेश्वर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy