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सीता का अपहरण
मैं आ रहा हूँ, डरो मत।" जटायु तत्काल उड़ा और रावण को संबोधित करते हुए बोला ;“ऐ दुष्ट निशाचर ! ऐ नीच निर्लज्ज ! छोड़ दे माता को । नहीं, तो अभी तेरे पाप का फल चखाता हूँ 1
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वह रावण पर झपटा और अपने तीक्ष्ण चोंच, नाखून तथा धारदार पंखों से रावण के शरीर पर घाव करते अगा । उसने शीघ्रतापूर्वक रावण पर इतने वार किए कि जिससे अनेक स्थानों से रक्त बहने लगा, जलन होने लगी। रावण क्रोधित हुआ और खड्ग उसके पंख काट कर नीचे गिरा दिया। जटायु भूमि पर पड़ा तड़पने लगा और रावण आकाश मार्ग से निर्विघ्न अपने स्थान की ओर जाने लगा। सीताजी उच्च स्वर से विलाप करती हुई कहने लगी;
" हे शत्रु के काल प्रवेश ! हे वत्स लक्ष्मण ! हे पिता ! हे वीर भामण्डल ! यह पापी रावण मेरा अपहरण कर के मुझ ले जा रहा है । बचाओ, कोई इस पापी से मुझे बचाओ।"
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मार्ग में अकंजटी के पुत्र रत्नलटी खेचर ने सीता का रुदन सुना और सोचा कि - यह करुण क्रन्दन तो मेरे स्वामी भामण्डल की बहिन सीता का लगता है । अभी वह राम के साथ वनवास में है । कदाचित् किसी लम्पट ने राम-लक्ष्मण को भ्रम में डाल कर सीता का अपहरण किया हो । मेरा कर्तव्य है कि मैं सीना को मुक्त करवाऊँ' -इस प्रकार विचार कर वह खड्ग ले कर उछला और रावण के संमुख आ कर कहने लगा
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" अरे धूर्त, लम्पट ! छोड़ दे इस सती को । अन्यथा तू जीवित नहीं बच सकेगा । मैं तुझे इस घोर पाप का फल चखाऊँगा ।"
रावण ने रत्नजटी को अपने पर आक्रामक बनता देख कर उसकी समस्त विद्याओं का हरण कर लिया । विद्या-हरण के साथ ही रत्नजटी नीचे गिरा और वहां के कम्बुगिरि पर रहने लगा
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सीता को लेकर रावण आकाश मार्ग से आगे बढ़ने लगा । सीता को संतुष्ट एवं प्रसन्न करने के लिए वह बड़ी विनम्रता पूर्वक कहने लगा; --
" सुन्दरी ! तु खेद क्यों करती है ? में समस्त भूचर और खेचरों का स्वामी हूँ । शक्ति, अधिकार एवं वैभाव में मेरे समान संसार में दूसरा कोई नहीं है । में तुझे राजमहिषी के सम्मानपूर्ण पद पर शोभित करूँगा । तेरी आज्ञा में में स्वयं त्रिखण्डाधिपति सदैव
÷ धन-जन की भाँति विद्या का भी हरण हो सकता है ? कदाचित् बुद्धि-विभ्रम उत्पन्न कर दिया जाता हो ?
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