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तीर्थंकर चरित्र
अग्निकुमार देव हुए स्कन्दकाचार्य ने अवधिज्ञान से अपने और श्रमण-संघ के घोरशत्रु पालक को देखा । उसके महापाप का स्मरण कर वह देव, क्रोधावेश आ गया और अपनी दाहक - शक्ति से दण्डक राजा, पालक और समस्त नगर को जला कर भस्म कर दिया । उस समय जल कर भस्म हुआ यह क्षेत्र 'दण्डकारण्य' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । दण्डक राजा अनेक योनियों में जन्म-मरण करता और पापकर्म का फल भोगता हुआ यह गन्ध नाम का महा रोगी पक्षी हुआ । पाप कर्म विपाक हलका होने पर इसके ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम हुआ । हमारे दर्शन से इसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। हमें प्राप्त स्पषधी लब्धि के प्रभाव से इसके सभी रोग नष्ट हो गए ।" अपना पूर्वभव सुन कर वह गिद्धपक्षी प्रसन्न हुआ । उसने पुनः मुनिवरों को नमस्कार किया और धर्म श्रवण कर के श्रावक व्रत स्वीकार किये। महर्षि ने अवधिज्ञान से उसकी इच्छा जान कर उसे जीव-हिंसा, मांस भक्षण और रात्रि भोजन का त्याग कराया । " हे रामभद्र ! अब यह पक्षी तुम्हारा सहधर्मी है । सहधर्मी बन्धुओं पर वात्सल्य भाव रखना कल्याणकारी है -- ऐसे जिनेश्वर भगवंतों का वचन है ।'
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रामभद्रादि ने महर्षि के वचनों का आदर किया। दोनों मुनिराज आकाश मार्ग से प्रस्थान कर गए । राम-लक्ष्मण और सीता, जटायु पक्षी के साथ दिव्य रथ में बैठ कर आगे बढ़े |
सूर्यहास खड्ग साधक शंबुक का मरण
पाताल- लंका में खर विद्याधर का शासन था । उसकी पत्नी चन्द्रनखा के 'शंबूक' और 'सुन्द' नाम के दो पुत्र थे । यौवन-वय प्राप्त होने पर महा साहसी शंबूक कुमार ने वन में जा कर सूर्यहास खङ्ग साधने की इच्छा व्यक्त की । माता-पिता की इच्छा की अवहेलना कर के शंबूक कुमार सूर्यहास खङ्ग साधने के लिए दण्डकारण्य में आया । कंचरवा नदी के किनारे वंशजाल के गव्हर को उसने अपना साधना स्थल बनाया । उसने निश्चय किया कि - " यहाँ रहते हुए मुझे कोई रोकेगा, तो मैं उसे मार डालूंगा ।" दिन में एक वार भोजन करता, ब्रह्मचर्य पालता एवं जितेन्द्रिय रहता हुआ वह विशुद्धात्मा, वटवृक्ष की शाखा से अपने पाँव बाँध कर तथा ओंधा लटकता हुआ, सूर्यहास खङ्ग साधने की विद्या का जाप करने लगा। यह विद्या बारह वर्ष और सात दिन की साधना से सिद्ध हो सकती थी । शंबूक को साधना करते हुए बारह वर्ष और चार दिन बीत चुके थे और केवल
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