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________________ १३४ होगा ।" तीर्थंकर चरित्र " स्कन्दक ! कुंभकारट जाने पर तुम्हें और सभी साधुओं को मरणान्तक उपसर्ग 'भगवन् हम आराधक बनेंगे, या विराधक ?" 'तुम्हारे सिवाय सभी आराधक होंग ।" 'यदि मेरे सिवाय सभी साधु आराधक होंगे, तो मैं अपने को सफल समझँगा ।" स्कन्द मुनि ने अपने पाँच सौ साधुओं के साथ विहार कर दिया। वे ग्रामानुग्राम विचरते हुए कुंभकारट नगर के समीप पहुँचे। उन्हें आते देख कर पालक का वैर जाग्रत हुआ । उसने तत्काल एक षड्यन्त्र की योजना की । साधुओं के ठहरने के लिए उपयोगी ऐसे एक उद्यान में उसने गुप्तरूप से बहुत-से शस्त्रास्त्र, भूमि में गड़वा दिये । स्कन्दक अनगार, अपने परिवार सहित उस उद्यान में ठहरे । दण्डक राजा, मुनि आगमन सुन कर वन्दन करने गया । मुनिराज ने राजा प्रजा को धर्मोपदेश दिया । उपदेश सुन कर परिषद् स्वस्थान चली गई । पालक ने राजा को एकान्त में कहा - " यह स्कन्दक मुनि बगुलाभक्त -- दंभी है । इसके साथ के साधु बड़े शूर-वीर हैं । प्रत्येक में एक हजार शत्रुओं को पराजित करने की शक्ति है । ये आपका राज्य हड़पने के लिए आये हैं । इन्होंने अपने शस्त्र, उद्यान की भूमि में गाड़ रखे हैं । अवसर पा कर ये आप पर आक्रमण कर के आपके राजसिंहासन पर अधिकार करना चाहते हैं । मुझे अपने भेदिये द्वारा विश्वस्त सूचना प्राप्त हुई है । आपको पूर्णरूप से सावधान रहना होगा। यदि आपको मेरी बात का विश्वास न हो, तो स्वयं चल कर देख लीजिए ।" Jain Education International राजा यह सुन कर स्तंभित रह गया । वह पालक के साथ उद्यान में आया । पालक द्वारा दिखाई गई भूमि खुदवा कर उसने शस्त्र निकलवाये । उसके हृदय में मुनिवृन्द के प्रति उग्रतम क्रोध उत्पन्न हुआ । उसने पालक से कहा ; -- " सन्मित्र ! तू मेरा रक्षक है । तेरी सावधानी से ही यह षड़यन्त्र सफल नहीं हो कर पकड़ में आ गया। यदि तू नहीं होता, या असावधान होता, तो यह ढोंगी-समूह अपना मनोरथ पूर्ण कर लेता और मेरी तथा मेरे परिवार की क्या गति होती ? किस दुर्दशा से मृत्यु होती ? तू मेरा व इस राज्य तथा मेरी वंश-परम्परा का उपकारी है । अब तू ही इस दुष्ट समूह को दंडित कर । इन सब को उचित दण्ड दे । अब मुझ से पूछने की आवश्यकता नहीं, तू स्वयं समझदार है ।" राजाज्ञा प्राप्त होते ही पालक ने तत्क्षण, मनुष्य को पिलने का यन्त्र ( घाना ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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