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पाँच सौ साधुओं को पानी में पिलाया
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देवों द्वारा की हुई सुगन्धित जल की वृष्टि की सुगन्ध से आकर्षित हो कर वह नीचे उतरा। मुनि का दर्शन होते ही उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। वह मूच्छित हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा । सीताजी ने उस पर जल-सिंचन किया । कुछ समय बाद वह सावधान हो कर मुनिवरों के पास पहुँचा और चरणों में गिरा । मुनिवरों को स्पौषधी लब्धि प्राप्त थी। चरणों का स्पर्श होते ही वह पक्षी निरोग हो गया। उसके पंख सोने के समान, चोंच परवाले के समान लाल, पाँव पद्मराग मणि जैसे और सारा शरीर अनेक प्रकार के रत्नों की कांति वाला हो गया। उसके मस्तक पर रत्न के अंकुर की श्रेणी के समान जटा दिखाई देने लगी । इस जटा से उस पक्षी का नाम “ जटायु" प्रसिद्ध हुआ।
पाँच सौ साधुओं को पानी में पिलाया
रामभद्र ने मुनिराज से पूछा;--" भगवन् ! गिद्ध-पक्षी तो मांसभक्षी एवं कलुषित भावना वाला होता है, फिर यह आपके चरणों में आ कर शांत कैसे हो गया ? तथा यह पहले तो अत्यन्त विरूप था, अब क्षणभर में सुवर्ण एवं रत्न की कांति के समान कैसे बन गया ?"
__ सुगुप्त मुनि ने कहा--" पूर्व काल में यहाँ 'कुंभकारट' नाम का एक नगर था। यह पक्षी अपने पूर्वभव में उस नगर का 'दण्डक' नाम का राजा था। उसी काल में थावस्ति नगरी में जितशत्रु नाम का राजा था। उसकी धारणी रानी से स्कन्दक पुत्र और पुरन्दरयशा पुत्री जन्मी थी। पुरन्दरयशा का दण्डक राजा के साथ लग्न हुआ था । दण्डक राजा के पालक नाम का दूत था । कार्यवश दण्डक ने पालक दूत को जितशत्रु नरेश के पास भेजा। जब पालक उनके समीप पहुँचा, तब वे धर्म-गोष्ठी में संलग्न थे। पालक धर्मद्वेषी था । वह उस धर्मगोष्ठी में अपनी मिथ्यामति से विक्षेप करने लगा। राजकुमार स्कन्दक ने पालित से वाद कर के निरुत्तर कर दिया। निरुत्तर एवं पराजित पालक अपने को अपमानित समझ कर राजकुमार पर डाह रखने लगा । कालान्तर में राजकुमार स्कंदक, अन्य पाँच सौ राजकुमारों के साथ तीर्थंकर भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के पास दीक्षित हो गया । कुछ काल के बाद स्कन्दक अनगार ने भगवान से प्रार्थना की--
"प्रभो ! मेरी इच्छा कुंभकारट नगर जा कर पुरन्दरयशा और उसके परिवार को प्रतिबोध देने की है । आज्ञा प्रदान करें।"
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