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मुनि कू भूषण देशभूषण
उसी राजा की कनकाभा रानी के उदर से 'अनुद्धर' नामक पुत्र हुआ। वह पूर्वभव के वैर मे अनुप्राणित हो कर अपने विमाताजात वन्धुओं पर द्वेष एवं मात्सर्य रखने लगा। किन्तु वे दोनों भाई उससे स्नेह करते थे । योग्य समय पर रत्नरथ को राज्य तथा चित्ररथ और अनुद्धर को युवराज पद दे कर प्रियंवद नरेश प्रवजित हो गए और केवल छह दिन संयम पाल कर देवलोकवासी हो गए।
रत्नरथ राजा ने 'श्रीप्रभा' नाम की राजकुमारी से लग्न किया । इसी राजकुमारी के लिए पहले युवराज अनुद्धर ने भी याचना की थी। हताश अनुद्धर का नरेश पर द्वेष बढ़ा । वह अपने ही क्रोध की आग में जलता हुआ युवराज पद छोड़ कर निकल गया और डाकू बन कर राज्य में लूट-पाट करने लगा । इस डाकू भाई के द्वारा प्रजा का पीड़न, रत्नरथ नरेश से सहन नहीं हुआ। जब समझाना-बुझाना भी व्यर्थ हो गया, तो नरेश ने उसे पकड़ कर बन्दी बना लिया और उचित शिक्षा दे छोड़ दिया। इसके बाद अनुद्धर जोगी बन कर तपस्या करने लगा, किन्तु स्त्री-प्रसंग से तपभ्रष्ट हो गया और मृत्यु पा कर भवभ्रमण करते-करते मनुष्यभव पाया। मनुष्यभव में पुनः तपस्वी बन कर अज्ञान-तप करने लगा और मर कर ज्योतिषी में अनलप्रभ देव हुआ।
रत्नरथ नरेश और चित्ररथ युवराज ने संयम स्वीकार किया और चारित्र का विशुद्ध पालन करते हुए भव पूर्ण कर अच्युत कल्प में अतिबल और महाबल नाम के मद्धिक देव हए । वहां से च्यव कर सिद्धार्थपुर के क्षेमंकर नरेश की रानी विमलादेवी की कुक्षि से मैं कुलभूषण और यह देशभूषण उत्पन्न हुआ । योग्य वय में पिताश्री ने हमें घोष नाम के उपाध्याय के पास अभ्यास करने भेजा। हमने उपाध्याय के पास बारह वर्ष तक रह कर अभ्यास किया । अभ्यास पूर्ण कर के हम उपाध्याय के साथ राजभवन में आ रहे थे कि हमारी दृष्टि महालय के गोखड़े में बैठी एक सुन्दर कन्या पर पड़ी । हमारे मन में उसके लिए अनुराग उत्पन्न हुआ। हम काम-पोड़ित हो गए और उसी चिन्तन में मग्न हम पिताश्री के पास आये। पिताश्री ने उपाध्याय को पारितोषिक दे कर बिदा किया। हम अन्तःपुर में माता के पास पहुँचे । उसी सुन्दरी को माता के निकट बैठी देख कर हमें आश्चर्य हुआ। माता ने उसका परिचय कराते हुए कहा;-“यह तुम्हारी छोटी बहिन कनकप्रभा है । इसका जन्म तब हुआ था--जब तुम उपाध्याय के यहां विद्याभ्यास करने गये थे।" यह बात सुन कर हम लज्जित हुए । बहिन के प्रति अपनी दुष्ट भावना के लिए पश्चात्ताप करते हुए हम दोनों विरवत हो कर दीक्षित हो गए और उग्र तप करते हुए हम इस पर्वत पर आये । हमारे पिता हमारा वियोग सहन नहीं कर सके और अनशन कर
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