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तीर्थकर चरित्र
रामभद्र, लक्ष्मण और महीधर के पुत्र, विशाल सेना ले कर चले और नंद्यावर्तपुर के बाहर उद्यान में पड़ाव किया । उस क्षेत्र के अधिष्टायक देव ने श्रीरामभद्र की सेवा में उपस्थित हो कर कहा
"महानुभाव ! मैं आपकी सेवा के लिए तत्पर हूँ। कहिये, क्या हित करूँ ?"
--" देव ! तुम्हारी सद्भावना से मैं प्रसन्न हूँ। यही पर्याप्त है"--रामभद्रजी ने कहा।
---" आप समर्थ हैं, किंतु मैं चाहता हूँ कि अतिवीर्य को ऐसा सबक मिले कि जिससे वह लज्जित बने और लोक में वह--"स्त्रियों से हारा हुआ" माना जाय । इसलिये मैं आपकी समस्त सेना को वैक्रिय द्वारा स्त्रीरूप में परिवर्तित कर देता हूँ।"
देव ने राम-लक्ष्मण सहित समस्त सेना को स्त्रीरूप में बदल दिया। रामभद्र ने सेना सहित नगर के समीप आ कर द्वारपाल द्वारा नरेश को सूचना करवाई । नरेश ने पूछा--
--" महीधर नरेश आये हैं क्या ?" -"नहीं, वे नहीं आये।"
--"वह अभिमानी है । मुझे उसका घमण्ड उतारना पड़ेगा। जाओ उसकी सेना को लौटा दो। भरत के लिए मैं अकेला ही पर्याप्त हूँ"-अतिवीर्य ने क्रोधपूर्वक कहा।
"महाराज ! महीधर ने सेना भी स्त्रियों की ही भेजी है। उसमें पुरुष तो एक भी नहीं है । यह कितनी बड़ी दुष्टता है"-द्वारपाल ने कहा।
-"क्या स्त्रियों की सेना ? निकालो उन रांडों को--मेरे राज्य में से । गर्दन पकड़ कर धकेलते हुए सीमा पार कर दो। निर्लज्ज कहीं का"--नरेश ने क्रोधावेश में कहा।
सैनिक और सामंतगण उस स्त्री-सेना को लौटाने के लिए आये और अपनी शक्ति लगाने लगे । स्त्रीरूपधारी लक्ष्मण ने हाथी को बाँधने का स्तंभ उखाड़ कर उसी से प्रहार करना शुरू किया। सभी सैनिक और सामंत भूमि पर लौटने लगे। सामन्तों की दुर्दशा से अतिवीर्य का क्रोधानल विशेष भड़का । वह स्वयं खड्ग ले कर झपटा । निकट आने पर लक्ष्मणजी ने उसका हाथ पकड़ कर खड्ग छिन लिया और नीचे गिरा कर उसके ही वस्त्र से उसे बाँध दिया और जनता के देखते हुए उसे घसीट कर ले चले । अतीवीर्य की दुर्दशा देख कर सीताजी का हृदय करुणामय हो गया। उन्होंने लक्ष्मणजी से उसे छुड़वाया । इधर देवमाया हटने से सभी पुनः पुरुषरूप में हो गए । अतिवीर्य ने देखा कि ये तो रामभद्र, लक्ष्मण और सीताजी हैं। वह लज्जित हुआ । क्षमा मांगी । रामभद्रजी ने उसे भरतजी
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