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तीर्थकर चरित्र
"तू यह पापी-कृत्य छोड़ दे और धर्म का आचरण कर के प्राप्त मानवभव को सफल कर ले।"
उस उकारी जीवन-रक्षक की बात को मैं स्वीकार नहीं कर सका । मेरी दुष्टप्रकृति मझ से बदली नहीं जा सकी। मैने उस देश का त्याग कर दिया और भटकता हआ चोरपल्ली में पहुंच गया। यहाँ आ कर मैंने अपना नाम बदल कर 'काक' रख लिया और अनुकूलता पा कर पल्लीपति बन गया। मेरी सैन्यशक्ति दिनोदिन बढ़ने लगी। में गाँवों नगरों और राज्यों को लूटने लगा और घात लगा कर, राजाओं को पकड़ने और गुप्त स्थानों पर बन्दी बनाने लगा। मेरा स्थान तथा हलचल सुरक्षित एवं गुप्त रहती आयो । किन्तु अचानक आज मैं आपके संमुख आ कर, आपकी अद्भुत शक्ति के वशीभूत हो गया। अब आप आदेश दें कि मैं क्या करूँ। में आपश्री का किंकर हूँ। मेरा अविनय क्षमा करें।"
"वालिखिल्य राजा को मुक्त करो"--रामभद्रजी ने आज्ञा दी । आज्ञा का पालन करते हुए वालिखिल्य को छोड़ दिया। वालिखिल्य ने मुक्त होते ही अपने उद्धारक श्रीरामभद्रजी के चरणों में नमन किया । म्लेच्छाधिपति काक ने उसी समय वालिखिल्य राजा को उसके स्थान पर पहुँचा दिया। वालिखिल्य, राजधानी में पहुँच कर स्वजनादि से मिला और राज्य का संचालन करने लगा।
वालि खिल्य को मुक्त करा कर रामभद्रादि आगे बढ़े और विध्य-प्रदेश की अटवी को पार कर के ताप्ति नदी उतरे तथा आगे बढ़ते हुए अरुण नामक ग्राम में पहुँचे । उस समय सीताजी को प्यास लगी, इससे वे कपिल नाम के ब्राह्मण के घर गये। कपिल अत्यंत क्रोधी स्वभाव वाला था, किन्तु उस समय वह घर में नहीं था। उसकी पत्नी ने रामभद्रादि का सत्कार कर के जलपान कराया। इतने में कपिल आ गया । उसने अपरिचित पथिकों को घर में बैठे देखा, तो भड़क उठा और अपनी पत्नी को गालियां देता हुआ बोला;--
"रे दुष्टा ! तेने इन मलिन और अपवित्र मनुष्यों को घर में क्यों बिठाया ? पापिनी ! तेने अपने अग्निहोत्री घर की पवित्रता का कुछ भी विचार नहीं कर के अशुद्ध कर दिया । तू स्वयं पापिनी है । मैं तेरी नीचता को सहन नहीं कर सकता"-इस प्रकार वकता हुआ वह ब्राह्मणी की ओर झपटा। उसी समय लक्ष्मणजी ने उसे कमर से पकड़ लिया और ऊँचा उठा कर उसे चक्र के समान घुमाने लगे। कपिल का क्रोध उड़ गया । वह भयभीत हो कर चिल्लाने लगा । रामभद्रजी ने लक्ष्मणजी को समझा कर कपिल को छुड़ाया। इसके बाद तीनों वहाँ से निकल कर आगे बढ़े।
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