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तीर्थंकर चरित्र
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दीजिए और विश्वास करिये कि हम शीघ्र ही विजय प्राप्त कर लेंगे । आप युद्ध में पधारें और हम यहां रह कर आलसी बने बैठे रहें, यह अच्छी बात नहीं । आप निश्चित हो कर आज्ञा प्रदान करें।"
बड़ी कठिनाई से दशरथजी ने पुत्रों को युद्ध में भेजना स्वीकार किया। राम और लक्ष्मण, एक विशाल सेना ले कर मिथिला गये । म्लेच्छ योद्धाओं ने इस नयी सेना और इसके वीर सेनापतियों को देख कर आक्रमण बढ़ा दिया और अस्त्र-वर्षा कर राम की सेना को आच्छादित कर दिया। इस आक्रमण से म्लेच्छ आक्रामकों को अपनी विजय का आभास हुआ और जनकजी को भी अपनी पराजय दिखाई देने लगी। प्रजा में भी निराशा फैल गई ! तत्काल रामचन्द्रजी ने धनुष संभाला, पणच पर टंकार किया और बाण-वर्षा कर बहुत-से म्लेच्छों का छेदन कर डाला। अचानक हुई इस सफल बाण-वर्षा से म्लेच्छ नरेश और उनके सेनापति चकित रह गए। उन्होंने अग्रभाग पर आ कर जोरदार अस्त्र प्रहार प्रारंभ किया, किंतु दुरापाति, दृढ़घाति और शीघ्रवेधी राघव ने अपने प्रबल प्रहार से थोड़े ही समय में शत्रुओं को परास्त कर दिया । शत्रु-सेना भाग गई।
राम-लक्ष्मण के इस प्रभावशाली पराक्रम और विजय से जनक नरेश और समरत प्रजा अत्यंत प्रसन्न हुई । पराजय को एकदम विजय में परिवर्तित करने वाले वीर रामचन्द्र के प्रति सब की श्रद्धा बढ़ी। जनक नरेश ने सोचा--" मुझे तो विजय भी मिली और पुत्री के लिए योग्य वर भी प्राप्त हुआ-एकपंथ दो कार्य जैसा हुआ।"
विजयोत्सव मनाया जाने लगा। राम-लक्ष्मण का अभूतपूर्व भव्य स्वागत किया जाने लगा। जनक नरेश अपनी विजय, राज्य की स्थिरता और पुत्री के योग्य वर के मिलने से अत्यंत प्रसन्न थे। बढ़चढ़ कर उत्सव मनाया जाने लगा।
नारद की करतूत
जनक का अपहरण
जनक नरेश की पुत्री सीता, सौंदर्य का भण्डार थी । युवावस्या में उसका रूपलावण्य एवं आभा, पूर्ण विकसित हो गई थी। उसके सौंदर्य की प्रशंसा दूर-दूर तक फैल चुकी थी। नारदजी ने भी सीता की अपूर्व सुन्दरता की बात सुनी । वे पर्यटक, विनोदप्रिय बखेड़ा खड़ा कर तमाशा देखने वाले, राज्यों को परस्पर लड़ा कर प्रसन्न होने वाले, दाग में आग और आग में बाग लगाने वाले, संधि में विग्रह और विग्रह में संधि कराने वाले थे।
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