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सीता का वृत्तान्त
योग्य अवसर पर वहां का ‘चन्द्रगति' नाम का राजा हुआ । अनुक्रोशा भी प्रथम स्वर्ग से च्यव कर राजकुमारी हुई। पूर्व-भवों के सम्बन्ध इस भव में भी बन गए । वह चन्द्रगति गजा की रानी हो गई। उसका नाम 'पुष्पवती' था । वह सुशीला थी । उसका चरित्र उत्तम था।
वह सरसा (जिसका अपहरण हुआ था) भी सुयोग पा कर प्रवजित हुई और आयु पूर्ण कर ईशान देवलोक में देवी हुई । उसका विरही पति अतिभूति भी उसे खोजता भटकता हुआ मर कर भव-भ्रमण करते हुए कालान्तर में एक हंस के रूप में उत्पन्न हुआ। उसे बाल अवस्था में ही एक बाज-पक्षी ने झपट लिया और उड़ गया । हंसपुत्र भयभीत हो कर तड़पने लगा और बाज के पंजे से छूट कर भूमि पर, उस स्थान पर गिरा-जहां एक मुनि बैठे थे। मुनि ने देखा कि पक्षी मरणासन्न है । उन्होंने उसे नमस्कार महामन्त्र सुनाया। मुनि के शब्दों से आश्वस्त हो और सावधानी पूर्वक सुनते हुए आयु पूर्ण कर वह किन्नर जाति के व्यन्तर देवों में उत्पन्न हुआ। वहां का आयु पूर्ण कर वह विदग्ध नगर के प्रकाशसिंह नृप की प्रवरा रानी का 'कुलमण्डित' पुत्र हुआ। उधर सरसा का हरण करने वाला वह क्यान भोगासक्ति में ही मर कर, भवभ्रमण करता हुआ चक्रपुर नगर के धूम्रकेश पुरोहित का पिंगल नाम का पुत्र हुआ । वह विद्याचार्य के पास पढने लगा। उसके माथ वहां की राजकुमारी ‘अतिसुन्दरी' भी पढ़ती थी। दोनों के सम्पर्क से स्नेह सम्बन्ध हो गया और पुरोहित पिंगल, राजकुमारी को ले कर विदग्ध नगर में आया। विद्या, कला और योग्यता से रहित होने के कारण वह दरिद्र हो गया और तृण-काष्ठादि बेंच कर जीवन चलाने लगा। वहां के राजकुमार कुलमण्डित की दृष्टि अतिसुन्दरी पर पड़ी। अतिसुन्दरी को देखते ही वह आसक्त हो गया । सरसा के रूप में खोई हुई पत्नी उसे आद अतिसुन्दरी के रूप में दिखाई दी। अतिसुन्दरी भी राजकुमार पर आसक्त हो गई। उसका भी पूर्व-भव का स्नेह जाग्रत गया । कर्मोदय वश कुलमण्डित, कुलमर्यादा और राजसुख का त्याग कर, अतिसुन्दरी के साथ बन में चला गया और दूर देश में एक छोटे मे गांव में रहने लगा । पूर्वभव में परस्त्री का हरण करनेवाले की प्रिया का, उसके उस भव के पति द्वारा साहरण हुआ। पिंगल भी प्रिया के लुप्त हो जाने से भानभूल हो कर भटकने लगा । कालान्तर में उसे आचार्यश्री आर्यगुप्तजी का सुयोग मिला। उनके उपदेश से प्रभावित हो कर वह श्रमण हो गया और साधना करने लगा । किंतु उसके मन में से अतिसुन्दरी का स्नेह कम नहीं हुआ। रह-रह कर वह उसी का स्मरण और चिन्तन करता रहता।
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