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तीर्थंकर चरित्र
"यदि मैं ज्येष्ठभ्राता के नाते उनकी आज्ञा का पालन करूँ, तो भी वह भ्रातसम्बन्ध की अपेक्षा नहीं रह कर राज्य के कारण स्वामी-सेवक सम्बन्ध ही लोक-प्रसिद्ध रहेगा।"
"मुझे मालूम है कि भरत को इन्द्र भी अपना आधा आसन दे कर सम्मान करता है, किन्तु यह तो पिताश्री का ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण है । इसलिए मेरे मन पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मैं ज्येष्ठ-बन्धु के मन में प्रेम नही लोभ का वास देख रहा हूँ। इसलिए मैं तुम्हारी बात स्वीकार नहीं करता।"
श्री बाहुबलीजी की बात सुन कर 'सुवेग' ने परिणाम का बोध कराते हुए कहा ;
" महाराज ! आपके विचार वास्तविकता से दूर हैं । महाराजाधिराज भरतेश्वर की आत्मा महान् है और आपका भ्रम निर्मूल है। आप प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि हजारों राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली, तो उनके राज्य उनके पास ही रहे । किसी के राज्य से किसी को हटाया नहीं गया । किरातों ने युद्ध किया, तो उन्हें क्षति उठानी पड़ी और अन्त में उन्हें आज्ञाधीन होना ही पड़ा । ज्यों ही वे शस्त्र डाल कर शरण में आये. त्यों ही सम्राट ने उनका सम्मान किया और उन्हें अभयदान दे कर विदा दिया। अतएव आप भ्रम को त्याग कर ज्येष्ठ-बन्धु की आज्ञा शिरोधार्य करें। यदि आपने मेरे निवेदन पर योग्य निर्णय नहीं किया, तो आपके लिए हितकारी नहीं होगा। आपको यह भी सोच लेना चाहिए कि आपके नम्र नहीं बनने पर सम्राट के लाखों हाथी, घोड़े, रथ और करोडों पदाति सेना के सामने आपको और आपके राज्य की क्या दशा होगी ? मनुष्य को शांति के साथ अच्छी तरह से आगे-पीछे का विचार करने के बाद ही किसी निर्णय पर पहुँचना चाहिए । आवेश में आ कर किया हुआ साहस दुःखदायक हो जाता है।"
राजदूत की बात की अवगणना करते हुए श्री बाहुबली ने कहा ;---
“सुवेग ! तुम अपने कर्तव्य का पालन करते हो । तुमने अपने स्वामी का बाहरी उज्ज्वल पक्ष बता कर अपने कर्तव्य का पालन किया। किन्तु मैं भरत को वैसा नहीं मानता। मेरे सामने १८ बन्धुओं के राज्य को आत्मसात् कर लेने का ऐसा महान् उदाहरण है कि इसके आगे तेरे स्वामी की सदाशयता टिक नहीं सकती और जो तू उसकी सैन्यशक्ति का वर्णन कर के मुझे डराना चाहता है, तो यह तेरी भूल है । यदि भरत के पास सेना का महासागर है, तो मैं स्वयं उस सागर में बड़वानल (समुद्र के भीतर रहने वाली
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