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________________ भ० ऋषभदेवजी -- बाहुबली नहीं माने अग्नि) हूँ । मुझे भरत की सैन्य शक्ति का कोई भय नहीं है । मैने बचपन में इस भरत को टांग पकड़ कर आकाश में ऊँचा फेंक दिया था और फिर उसे एक पुष्प के समान हाथों में झेल लिया था, जिससे शरीर को आघात नहीं लगे। किन्तु विजय के नशे में वह पिछली बात भूल गया है और चाटुकारों ने उसे अभिमान के शिखर पर चढ़ा दिया है । ठीक है, तुम जाओ । अपने स्वामी से कहो कि मैं उसकी इच्छा के अनुकूल होना नहीं चाहता।" श्री बाहुबलीजी और राजदूत की बातें सुन कर सभा में उपस्थित राजकुमार, राजा, सेनापति आदि क्रोधित हुए। उन्हें राजदूत की बातें तुच्छ, विवेकशून्य, नरेश और देश का अपमान करने वाली और असहनीय लगी । वे राजदूत को दण्ड देने के लिए तय्यार हो गए । सुवेग, राज सभा से चल कर अपने रथ के पास आया और रथ पर चढ़ कर विनिता की ओर चल दिया । ८७ भरतेश्वर के दूत की बात तक्षशिला की जनता में फैली तो सर्वत्र हलचल मच गई । राज्य की ओर से किसी प्रकार की सूचना नहीं होने पर भी लोग युद्ध की तय्यारी करने लगे । जब सुवेग अपने रथ पर सवार हो कर, विनिता की ओर लौटा जा रहा था, तो उसने मार्ग में लोगों की हलचल और युद्ध की तय्यारी देखी । नगरजन ही नहीं, गाँवों के किसान भी क्रोधित हो कर अपने आप युद्ध की तय्यारी करते दिखाई दिये । उसे विचार हुआ कि बाहुबली को छेड़ना भरतेश्वर को भारी पड़ सकता है । सुवेग ने विनिता पहुँच कर महाराजाधिराज भरतेश्वर को अपनी असफलता के समाचार सुनाये और कहा - "बाहुबलीजी भी आपके समान महाबली हैं । वे आपकी आज्ञा में रहना नहीं चाहते और युद्ध करने को तय्यार हैं । उनकी सभा के सामन्त तथा राजकुमार, प्रचण्ड योद्धा हैं और वे मेरी बात सुनते ही आगबबूला हो गए। वहाँ की प्रजा भी अपने आप ही आप पर क्रुद्ध हो कर युद्ध की तय्यारी करने में लग गई है । यह स्थिति है महाराज ! वहाँ की । अब आप जैसा योग्य समझें वैसा करें।" राजदूत की बात सुनकर भरतेश्वर प्रसन्न हुए । उन्होंने कहा - " मैं जानता हूँ सुवेग ! बाहुबली के समान शक्तिशाली दूसरा कोई मनुष्य नहीं है । वह सुर-असुर से भी नहीं डरता | त्रिलोकनाथ तीर्थंकर का पुत्र और मेरा भाई महाबली हो, यह तो मेरे लिए प्रसन्नता की बात है । मुझे गौरव है कि मेरा छोटा भाई अद्वितीय महाबली है । मैं उसके बलाभिमान को सहन करता हुआ उसका हित चाहता हूँ । उससे मेरी शोभा है, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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