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________________ भ० ऋषभदेवजी--प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराजा की दिग्विजय ७९ । रही। उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। किंतु महाराजा भरतेश को विचार हुआ कि "यह अकाल वर्षा कैसे हुई ? किसी ने उपद्रव तो नहीं किया है ?" इस प्रकार विवार होते ही उनकी सेवा में रहने वाले देवों ने मेघमाली देव को फटकारा । वह अपनी लीला समेट कर चला गया और अपने आराधक कि रातों को कहता गया कि "तुम चक्रवर्ती सम्राट भरतेश्वर की सेवा में जा कर उनसे क्षमा याचना करो । उनको भेंट दे कर अधीनता स्वीकार करो। ऐसा करने से ही तुम्हारा हित होगा । तुम्हें ऐसा करना ही होगा।" वे किरात-भिल्ल आदि मूल्यवान् भेंट ले कर सम्राट की सेवा में उपस्थित हुए। भेट धर कर क्षमा मांगी और अधीनता स्वीकार की। महाराजा ने उनका सत्कार कर के बिदा किया। - इसके बाद चक्र-रत्न चुल्लाहमवंत पर्वत की ओर गया । महाराजा भी सेना-सहित उधर ही चले। वहाँ के देव को अधीन किया। वहाँ से ऋषभकूट पर्वत पर आये। वहाँ के पूर्व शिखर पर सम्राट ने काकिणी-रत्न से इस प्रकार लिखा; -- "इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के प्रान्त भाग में, मैं भरत नाम का प्रथम चक्रवर्ती हुआ हूँ। मैने विजय प्राप्त की है । अब मेरा कोई शत्रु नहीं रहा ।" - इसके बाद चक्रवर्ती महाराजा वैताढ्य पर्वत पर गये और नमि-विनमि नाम के विद्याधरों के अधिपति को आधीन किया। विनमि ने अपनी अत्यन्त सुन्दरी युवती कन्या 'सुभ्रद्रा' को चक्रवर्ती महाराज को भेंट की । यह चक्रवर्ती की 'स्त्री-रत्न' कहलाई। नमि-विनमि ने अपने-अपने पुत्र को राज्य दे कर अरिहंत भगवान् ऋषभदेव स्वामी के पास जा कर निग्रंथ दीक्षा स्वीकार की। चक्रवर्ती की सेना वहाँ से लौट कर गंगा महानदी के निकट आई और गंगा देवी को अपने अधिकार में की। इसके बाद खंडप्रपाता गूफा साधी। इसके बाद महाराजा ने 'नव निधान' की साधना की । नव निधान ये हैं--- १ नैसर्ग--इससे ग्राम-नगर आदि की रचना होती है। २ पांडुक--इससे नाप-तोल आदि के गणित तथा धान्य और बीज की प्राप्ति होती है। ३ पिंगल निधि--इससे स्त्री, पुरुष और अश्वादि के आभूषण की विधि ज्ञात होती है। ४ सर्वरत्नक निधि-इससे सभी प्रकार के रत्नों की उत्पत्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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