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भ० ऋषभदेवजी
- प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराजा की दिग्विजय
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ब्राह्मी भी प्रव्रजित हुई । किन्तु बाहुबली की आज्ञा नहीं होने से 'सुन्दरी' दीक्षित नहीं हो सकी और श्राविका बनी। भगवान् के दीक्षित होते समय जिन लोगों ने भगवान् के साथ दीक्षा अंगीकार की थी और बाद में परीषहों से विचलित हो कर तापस हो गए थे, उनमें से 'कच्छ महाकच्छ' को छोड़ कर शेष सभी तापस पुनः भगवान् के पास दीक्षित हो गए। शेष बहुत-से मनुष्यों और तिर्यंचों ने श्रावक व्रत धारण किया और बहुतों ने तथा देवों ने सम्यक्त्व ग्रहण किया ।
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भगवान् ने ऋषभसेन (पुंडरीक) आदि साधु, ब्राह्मी आदि साध्वी, भरत आदि श्रावक और सुन्दरी आदि श्राविकाओं के चतुर्विध संघ की स्थापना की । यह चतुविध संघ इस अवसर्पिणी काल का प्रथम संघ -- प्रथम तीर्थ हुआ । ऋषभपेन आदि ८४ बुद्धिमान् साधु गणधर नामकर्म के उदय वाले थे । उन्हें भगवान् ने 'उत्पाद, व्यय और ध्रोव्य' इस त्रिपदी का उपदेश दिया । इस उपदेश के आधार पर उन गणधरों ने चौदह पूर्व और द्वादशांगी की रचना की। श्री तीर्थंकर भगवान् ने उन गणधरों को सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ का द्रव्य-गुण- पर्याय एवं नय- निक्षेप आदि से प्रवर्तन करने और गण धारण करने की अनुज्ञा प्रदान की । भगवान् ने पुनः शिक्षामय देशना प्रदान की। इसमें प्रथम प्रहर व्यतीत हो गया । उसके बाद भगवान् सिंहासन से उठ कर देवछंदक में पधारे। फिर मुख्य गणधर श्री ऋषभसेनजी (पुंडरीकजी ) ने भगवान् की पादपीठिका पर बैठ कर धर्मोपदेश दिया । गणधर महाराज के उपदेश के बाद परिषद् के लोग अपने-अपने घर गए ।
कुछ समय बाद भगवान् श्री ऋषभदेवस्वामी ने शिष्यों के साथ विहार किया और भव्य जीवों को धर्मोपदेश तथा योग्य जीवों को सर्वविरति देशविरति प्रदान करते हुए ग्रामानुग्राम विचरने लगे ।
प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराजा की दिग्विजय
भगवान् की धर्मदेशना सुन कर महाराजा भरत, शस्त्रागार में आये और सुदर्शनचक्र को देखते ही प्रणाम किया । चक्र का मोरपिंछी से प्रमार्जन किया। उसे पानी से धोया, गोशीर्ष चन्दन का तिलक किया और पुष्प, गंध, चूर्ण, वस्त्र तथा आभूषण से
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X तीर्थंकर भगवान् के समवसरण में गणधर महाराज की वेशना होने का उल्लेख आगमों में नहीं मिलता, ग्रंथों में ही मिलता है ।
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