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भ० ऋषभदेवजी x कुलकरों की उत्पत्ति x सागरचंद्र का साहस
ऐसी प्रशंसा सुन कर पीठ और महापीठ मुनि के मन में विचार हुआ— “जो उपकार करते हैं, उन्हीं की प्रशंसा होती है। हम आगम के अभ्यास और ध्यान में तत्पर रहते हैं, इसलिए सेवा नहीं कर सकते, तो हमारी प्रशंसा कौन करे ।" इस प्रकार की खिन्नता तथा माया- मिथ्यात्व से युक्त ईर्षा करते रहे और आलोचनादि नहीं कर के स्त्रीत्व का बन्ध कर लिया ।
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छहों महा मुनियों ने अनशन किया और आराधक भाव को पुष्ट कर के सर्वार्थसिद्ध महाविमान में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए ।
कुलकरों की उत्पत्ति-सागरचंद्र का साहस
जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में अपराजिता नाम की अनुपम नगरी थी । ईशानचन्द्र नाम का राजा उस नगरी का स्वामी था । उस नगरी में चन्दनदास नाम का एक धनाढ्य सेठ रहता था। उसके सुशील, सुन्दर और अनेक गुणों से युक्त ' सागरचंद्र ' नाम का युवक पुत्र था । एकदा राजाज्ञा से बसंतोत्सव में सम्मिलित होने के लिए सागरचन्द्र उद्यान में गया । वहाँ नृत्य, गीत, वादिन्त्र और विविध प्रकार के खेल आदि से मनोहर उत्सव हो रहा था । राजा और प्रजा सभी आमोद में लगे हुए थे कि उद्यान के निकट से एक करुण चित्कार सुनाई दी" बचाओ, बचाओ, बचाओ," यह चित्कार शब्द सागरचंद्र के कान में पड़ी। वह अपने प्रिय मित्र अशोकदत्त के साथ विविध दृश्य देखता हुआ घूम रहा था । चित्कार सुनते ही वह भागा और ध्वनि के सहारे एक गुफा के निकट पहुँच गया । वहाँ गुण्डों द्वारा एक युवती का अपहरण हो रहा था । सागरचन्द्र ने पहुँचते ही उस गुंडे को पकड़ा जो युवती को घसीट रहा था । उसका गला दबा कर पछाड़ दिया । इतने में दूसरा गुंडा छुरा त न कर सागरचंद्र पर झपटा, किंतु चतुर सागरचंद्र ने उस गुंडे के छुरे वाले हाथ पर लकड़ी का ऐसा प्रहार किया कि छुरा छूट कर दूर जा पड़ा | सागरचंद्र ने छुरा उठा लिया । इतने में उसका मित्र अशोकदत्त और अन्य लोग भी आ गये । गुंडे भाग गये। युवती बच गई । वह उसी नगर के श्रीमन्त सेठ पूर्णभद्र की सुपुत्री 'प्रियदर्शना' थी । रूप लावण्य से सुशोभित सुन्दरी पर सागरचंद्र मोहित हो गया और प्रियदर्शना भी अपने उद्धारक युवक सागरचंद्र पर मोहित हो गई । दोनों अपने-अपने घर गए । सागरचंद्र के साहस और प्रियदर्शना के रक्षक की बात नगरभर में फैल गई ।
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