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________________ ३० ९ दर्शन -- शंकादि दोष से रहित, स्थैर्यादि गुणयुक्त और शमादि लक्षण वाले सम्यग्दर्शन की आराधना कर के । १० विनय -- ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का विनय कर के । ११ प्रातः सायं उभयकाल भावपूर्वक षडावश्यक कर के । १२ व्रतों का शुद्धतापूर्वक निरतिचार पालन कर के । १३ शुभ ध्यान से समय को सार्थक कर के । १४ यथाशक्ति तपाचरण कर के । तीर्थंकर चरित्र १५ अभय-सुपात्र दान दे कर । १६ वैयावृत्य - - आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, नवदीक्षित, साधर्मिक, कुल, गण और संघ की थायोग्य सेवा कर के । 1 १७ आकुल-व्याकुलता छोड़ कर, समाधिभाव रख कर और गुर्वादि की यथायोग्य सेवा कर के उन्हें समाधिभाव में रखने से । १८ नवीन ज्ञान का अभ्यास करते रहने से । १९ श्रुत--सम्यग्श्रुत का शुभ भावपूर्वक प्रचार कर के और श्रुत का अवर्णवाद दूर कर के । २० धर्म - प्रभावना - उपदेश और प्रचारादि से धर्म की प्रभावना कर के । तीर्थंकर नामकर्म की परम शुभ पुण्य-प्रकृति का बन्ध उपरोक्त बीस प्रकार की उत्तम आराधना से होता है। इनमें से किसी एक पद की आराधना भी तीर्थंकर पद की प्राप्ति हो सकती है, तब अधिक और सभी पदों की आराधना के पुण्य प्रभाव का तो कहना ही क्या है । उत्कृष्ट भावों से आराधना हो, तो तीर्थंकर पद प्राप्त करने की योग्यता आ सकती है। महा मुनि वज्रनाभजी ने उत्कृष्ट भावों से सभी पदों को आराधना की और तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर लिया । बाहुनि ने साधुओं की वैयावृत्य कर के चक्रवर्ती पद के भोग फल का बन्ध कर लिया । तपस्वी मुनिवरों की सेवा कर के श्री सुबाहुमुनि ने अलौकिक बाहुबल उपार्जन किया । एक बार वज्रनाभ महाराज ने कहा--" धन्य है इन बाहु- सुबाहु मुनिवरों को जो साधुओं और तपस्वी रोगी आदि अशक्त मुनिवरों की भावपूर्वक सेवा करते हैं ।" उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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