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म० कुंथुनाथजी-धर्मदेशना-मनःशुद्धि
मार्ग को बताने वाली ऐसी दीप-शिखा है, जो कभी नहीं बुझती। जहां मनःशुद्धि है, वहाँ अप्राप्त गुण भी अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं और प्राप्त गुण स्थिर रहते हैं । इसलिए बुद्धिमान् मनुष्यों को चाहिये कि अपने मन को, सदैव शुद्ध रखे । जो लोग मन को शुद्ध किये बिना ही मुक्ति के लिए तपस्या करते हैं, वे सफल नहीं होते । जिस प्रकार जहाज छोड़ कर, भुजबल से ही महासमुद्र को पार करना अशक्य है, उसी प्रकार मनःशुद्धि के बिना मुक्ति पाना सर्वथा अशक्य है। जिस प्रकार अन्धे के लिए दर्पण व्यर्थ है, उसी प्रकार मन को दोष-रहित किये बिना तपस्वियों की तपस्या व्यर्थ हो जाती है । जोरदार बवंडर (चक्राकार वायु) राह चलते प्राणियों को उड़ा कर दूसरी ओर फेंक देती है, उसी प्रकार मोक्ष के ध्येय से किया हुआ तप भी, चपलचित्त तपस्वी को ध्येय के विपरीत ले जाता है अर्थात् सिद्धगति में नहीं ले जा कर दूसरी गति में ले जाता है।
___मन रूपी निशाचर, निरंकुश एवं निःशंक हो कर तीनों लोक के प्राणियों को संसार के अत्यन्त गहरे गड्ढे में डाल देता है। मन का अवरोध किये बिना ही जो मनुष्य, योग पर श्रद्धा रखता है, तो उसकी श्रद्धा उस पंगु की तरह व्यर्थ एवं हास्यास्पद है जो माने पांवों से अटवी लांघ कर, नगर-प्रवेश करना चाहता है ।
__मन का निरोध करने से सभी कर्म का निरोध (संवर) हो जाता है और मन का निरोध नहीं करने वाले के सभी कर्म बहुत बड़ी मात्रा में आते रहते हैं । यह मन रूपी बन्दर बडा ही लम्पट है। यह एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता और विश्वभर में भटकता ही रहता है । जिन्हें मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा है, उन्हें चाहिए कि मन रूपी मर्कट को यत्नपूर्वक अपने अधिकार में रखे और दोषों को दूर कर मन को शुद्ध बना ले। बिना मनःशुद्धि के तप, श्रुत, यम और नियमों का आचरण कर के कायाक्लेश उठानाकाया को दण्डित करना व्यर्थ है । मन की शुद्धि के द्वारा राग-द्वेष को जीतना चाहिए, जिससे भावों की मलिनता दूर होती है और स्वरूप में स्थिरता आती है।
'केवलज्ञान के बाद' २३७३४ वर्ष तक प्रभु, तीर्थकरपने विचर कर भव्य जीवों का उपकार करते रहे । निर्वाण का समय निकट आने पर प्रभु एक हजार मुनिवरों के साथ सम्मेदशिखर पर्वत पर पधारे और एक हजार मुनिवरों के साथ अनशन किया। वैशाख कृष्णा प्रतिपदा को कृतिका नक्षत्र के योग में, एक मास के अनशन से सभी मुनियों के साथ मोक्ष पधारे । भगवान् का कुल आयु ९५००० वर्ष का था।भ.श्री शांतिनाथजी के
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