SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थङ्कर चरित्र में, उच्च ग्रहों की स्थिति में पुत्र का जन्म हुआ । इन्द्रादि देवों ने और छप्पन कुमारिका आदि देवियों ने जन्मोत्सव किया। गर्भ के समय माता ने कुंथ नाम का रत्न-संचय देखा, इसलिए पुत्र का नाम 'कुंथुनाथ' दिया । यौवनवय प्राप्त होने पर अनेक राजकन्याओं के साथ कुमार का विवाह किया गया । जन्म से २३७५० वर्ष तक राजकुमार रहे । इसके बाद महाराजा ने अपना राज्यभार राजकुमार कुंथुनाथ को दिया। २३७५० वर्ष तक कुंथुनाथजी मांडलिक राजा रहे । इसके बाद आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ। आप भी पूर्व के चक्रवतियों के समान दिग्विजय कर के विधिपूर्वक चक्रवर्ती सम्राट हुए। दिग्विजय में छह सौ वर्ष का काल लगा। आपने २३७५० वर्ष तक चक्रवर्ती पद का भोग किया। इसके बाद वर्षीदान दे कर वैशाख-कृष्णा पंचमी को दिन के अन्तिम प्रहर में, कृतिका नक्षत्र के योग में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । दीक्षा लेने के बाद लगभग सोलह वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहे । आप विहार करते हुए पुनः हस्तिनापुर के सहस्राम्र वन उद्यान में पधारे और तिलक वृक्ष के नीचे बेले के तपयुक्त ध्यान करने लगे। घाती कर्म जर्जर हो चुके थे। ध्यान की धारा वेगवती हुई और धर्मध्यान से आगे बढ़ कर शुक्लध्यान में प्रवेश कर गई । जर्जर बने हुए घातीकर्मों की जड़ें, शुक्लध्यान के महाप्रवाह से हिलने लगी । मोह का महा विषवृक्ष डगमगाने लगा। महर्षि के महान् आत्मबल से शुक्ल-ध्यान की महाधारा ने बाढ़ का रूप ले लिया। अब बिचारा मोह महावृक्ष कहां तक टिक सकता था? आत्मा के अनन्त बल के आगे उस जड़ की क्या हस्ति थी ? उखड़ गयी उसकी जड़ और फिंक गया मुर्दे की तरह एक ओर । मोह महावृक्ष के नष्ट होते ही ज्ञानावरणादि तीन घातीकर्म भी उखड़ गए । चैत्र मास की शुक्ला तृतीया का दिन था और कृतिका नक्षत्र का योग था। प्रभु सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हो गए । केवलज्ञान महोत्सव हुआ। तीर्थ की स्थापना हुई । प्रभु ने अपनी प्रथम धर्मदेशना में फरमाया; -- धर्मदेशना-मनःशुद्धि "वह संसाररूपी समुद्र, चौरासी लाख योनीरूप जलभंवरियों * से महान् भयंकर है। भवसागर को तिरने के लिए मनःशुद्धि रूपी सुदृढ़ जहाज ही समर्थ है । मनःशुद्धि मोक्ष पानी का चक्राकार फिरना, जिसमें पड़ कर जहाज भी डब-ट कर नष्ट हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy