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________________ भ० शांतिनाथजी-मेघरथ राजा का वृत्तांत कन्दोरा पहन कर, बीभत्स रूप धारण कर के उछल कद करने लगे। कोई घोड़े के समान हिनहिनाने लगा, तो कोई हाथी-सा विघाड़ने लगा, इत्यादि अनेक प्रकार से ताण्डव करने लगे। वे सभी महाराजा का मनोरंजन करने लगे। इतने ही में आकाश में एक उत्तम विमान प्रकट हुआ, जिसमें एक पुरुष और एक युवती स्त्री बैठी थी। वे दोनों कामदेव और रति के समान सुन्दर थे। उन्हें देख कर महारानी ने महाराजा से पूछा- इस विमान में यह युगल कौन है ?' महाराज कहने लगे; ---- "वैताढ्य पर्वत की उत्तरश्रेणी में अलका नाम की उत्तम नगरी है । वहाँ विद्याधरपति विद्युद्रथ शासक है । मानसवेगा उसकी रानी हैं। उसके 'सिंहरथ' नाम का पराक्रमी पुत्र हुआ। उम राजकुमार के वेगवती युवराज्ञी है। युवराज सिंहरथ, प्रिया के साथ जलाशयों, उपवनों और उद्यानों में क्रीड़ा करने लगा। कालान्तर में विद्युद्रथ राजा, युवराज को राज्यभार दे कर सर्व त्यागी निग्रंथ बन गया और ज्ञान, ध्यान, तप और समाधि से समवहत हो, कर्म काट कर मुक्ति को प्राप्त हुए । सिंहरथ, समस्त विद्याधरों का अधिपति हुआ । कालान्तर में एक रात्रि में महाराजा सिंहरथ की नींद खुल जाने पर विचार हुआ-- ' मैंने अपना अमूल्य मानव-भव यों ही गंवा दिया। मैने न तो जिनेश्वर भगवंत के दर्शन किये, न उनका धर्मोपदेश सुना । अब मुझे सब से पहले यही करना चाहिए।' ऐसा सोचकर प्रातःकाल होते ही तय्यारी कर दी और महारानी सहित धातकी-खंड द्वीप के पश्चिम विदेह में सूत्र नाम के विजय में खड़गपुर नगर में गया और वहाँ रहे हुए तीर्थंकर भगवान् अमितवाहन स्वामी के दर्शन किये । धर्मदेशना सुनी और भगवान् को वन्दन नमस्कार कर वापिस लौटा । वह अपनी राजधानी में जा ही रहा था कि यहाँ आते उसके विमान की गति स्खलित हो गई। अपने विमान की गति रुकते देख कर उसने नीचे देखा । मै उसकी दृष्टि में आया। मुझे देख कर वह क्रोधित हुआ और मुझे उठा कर ले जाने की इच्छा से यहाँ मेरे पास आया। मैने अपने बायें हाथ से उसके बायें हाथ पर प्रहार किया। इससे वह चिल्लाने लगा। अपने पति को कष्ट में देख कर उसकी पत्नी परिवार सहित मेरी शरण में आई । इसलिए मैने उसे छोड़ दिया । छुटने के बाद वह विविध रूपों की विकुर्वणा करके यहाँ संगीत करने लगा।" __ यह सुन कर महारानी प्रियमित्रा ने पूछा--"प्रियतम ! यह पूर्वभव में कौन था? इसने कौनसी शुभ करणी की थी कि जिससे इतनी बड़ी ऋद्धि प्राप्त हुई ?" महाराजा ने कहा--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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